मैदान में ही करेंगे,चाहे जुर्माना भी क्यों न देना पड़े
खबर पढ़ने में आयी है कि मध्य प्रदेश सराकार ने खुले में शौच करने से रोकने के लिए आम लोगों को अलग-अलग तरह से दण्डित किया जा रहा है. इसी चक्कर में एक शिक्षक निलंबित कर दिए गये तो कही पत्नी के खुले में शौच करने के मामले में पति महाशय को सज़ा मिल रही है. आदि वासी बहुल जिला बेतुल के रम्भाखेड़ी गाँव में पंचायत ने 43 परिवारों पर दस लाख रुपये का जुर्माना ठोंक दिया.इनमें एक परिवार ऐसा भी है जिस पर सबसे ज़्यादा 75 हज़ार रूपये का जुर्माना लगाया गया है. क्या कमाल के लोग हैं, जो जुर्माना दे सकते हैं, लेकिन टट्टी टॉयलेट में नहीं करेंगे. इतना भारी जुर्माना देकर मैदान में ही करने का क्या तुक है. वैसे पंचायत और सम्बंधित लोगों को ऐसे लोगों के जज्बातों को समझना चाहिए और इन्हें अच्छे बुरे का फ़र्क बताना चाहिए, ये क्या कि कहीं भी मैदान को गीला-पीला करते पकड़ लिया तो जुर्माना ठोंक दिया. हो सकता है कि इन लोगों की पुश्तैनी आदत हो. अब ऐसी आदतें जाने में समय लगता है. समझना चाहिए कि जो लोग आज़ादी के पहले से मैदान में ही शौच करते चले आ रहे हों उनकी आदत केंद्र सरकार की कुछ सालों पहले शुरू की गयी स्वच्छता योजना के चलते तो छूट नहीं सकती है. बहुत से ऐसे प्राणी होते हैं जिन्हें बंद कमरे में घुटन सी होती है, इस वज़ह से कमरे के खिड़की दरवाज़े खोल कर सोते हैं. कुछ यही कारण हो सकते हैं कि इन लोगों को चारों तरफ से बंद शौचालय में देर तक बैठे रहने पर घुटन होती हो. या हो सकता है कि कई दशकों की आदत के मुताबिक डिब्बा लेकर निकले टॉयलेट के लिए, लेकिन आदतन पहुँच गए हरे-भरे घास और झाड़-झंखाड़ वाले अपने जाने पहचाने स्थान पर. तुरंत थोड़ा सा पतलून या पज़ामा सरकाया और बैठ गए. पक्षियों की आवाजों, हरे-भरे वृक्ष, लोगों को आते-जाते देखना,अगर पास में रेलवे ट्रैक है तो धाड़-धाड़ करके पटरी पर दौड़ती ट्रेन को देखते हुए समय भी कट जाता है. काम भी हो जाता है. सभी को मालूम है गाँवों में मनोरंजन के साधन के नाम पर सामूहिक खेल कबड्डी, गुल्ली-डंडा, छुपी-छुपव्वल, सकड़ी, लूडो आदि सदियों से चले आ रहे गेम ही होते हैं. शहर के नज़दीक जो गाँव हैं वहां के छोरे ज़रूर पैसे जोड़ गाँठ कर चाइनीज मोबाइल लेकर शौचालय में इसलिए बैठ जाते होंगे कि मोबाइल पर गेम ही खेल कर टाइम पास हो जाएगा, या फिर गाने ही बजा लेंगे. शौचालय में न जाने वाले ज़्यादातर वो बुजुर्ग होंगे जो अपनी पुरानी परम्परा से हटकर काम नहीं करना चाहते हैं. एक मित्र बताने लगे कि उने पिता जी मुंबई उनके घर आये, जब शौच के लिए डिब्बा लेकर जाने लगे तो उसने कमरे में बने टॉयलेट की तरफ इशारा किया कि पिता जी शौचालय इधर है. फिर क्या था, करना भूल कर मित्र महोदय की धुलाई शुरू कर दी कि शहर में आकर तुम संस्कार हूल गए कि लैट्रिन घर के बाहर होनी चाहिए. तुमने घर के अन्दर ही न ली है. अब तो खाना भी नहीं खाया जा सकेगा. आदि-आदि ढेरो प्रवचन सुना दिए और तुरंत अपनी अटैची उठाकर गाँव वापसी की ज़िद करने लगे. मित्र महोदय ने बड़ी मुश्किल से रोका और समझाया तब जाकर रहने के लिए राज़ी हुए. इन बातों को ध्यान में रखते हुए कुछ प्रतिशत इन संस्कारों के वाहकों को शौचालय के बारे में बहुत कुछ अच्छा-बुरा समझाने की ज़रुरत है. इन बातों में थोड़ा सा मज़ाक का पुट है लेकिन ये कडुआ सच है कि किसी भी आदत को बदलने में वक़्त तो लगता ही है.






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