अब अफवाह उड़ेगी कि थेलर की नोबेल पुरस्कार की जीत के पीछे मोदी का हाथ है

यह बात लिखते हुए हंसी आ रही है कि शिकागो यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर रिचर्ड थेलर अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता बन गये. इस पुरस्कार की दौड़ में पूर्व आरबीआई के गवर्नर रघुराम राजन भी शामिल थे. सिर्फ दो नाम इसलिए लिए हैं कि दोनों ही मोदी सरकार की नोटबंदी से किसी न किसी तरह से जुड़े हुए हैं. एक वर्ष पूर्व 8 नवम्बर 2016 की रात को प्रधानमंत्री मोदी ने देश की जनता को संबोधित करते हुए 500और 1000 के नोटों को चलन से बाहर कर दिया था. देश में भूचाल सा आ गया. इन नोटों का चाल-चलन खराब करने में केंद्र आती-जाती रही सरकारों की भोमिका रही है. जितना देश आगे बढ़ता गया, उसी अनुपात में घोटालों का साइज भी बढ़ता गया. इन घोटालों की शुरुआत सही मायने में 1987 से हुई थी. बोफोर्स तोप घोटाले ने सबसे पहले भारत में दस्तक दी थी. इसके बाद तो एकदम से भ्रष्टतम नेताओं और अधिकारियों में घोटाले करने की होड़ सी मच गयी. जिसे, जिस विभाग में मौक़ा मिला उसने हाथ साफ कर दिया. इस तरह से इन लोगों को शार्टकट से कैसे कमाया जाता है की समझ और हिम्मत आ गई. समय और घोटालों में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ सी लग गयी. इस रेस को कहीं तो रुकना ही था. सो 2014 आ गया. गुजरात का मुख्यमंत्री पद त्याग, नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री का पद भार ग्रहण किया. सन 2014 को कोई भी घोटालेबाज़ नेता शायद ही भूल सकेंगे. प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने गुजरात राज्य की तरह ही, अपनी इस नयी पारी की शुरुआत की. एक साफ़-सुधरी छवि के प्रधानमंत्री ने छवि के अनुरूप कार्य शुरू किया तो घोटालों में लिप्त नेताओं ने मोदी के खिलाफ चौतरफा हमले शुरू कर दिए. नेचर से अड़ियल रुख वाले, पीएम ने जब इन्हें घेरना शुरू किया तो छोटे-बड़े घोटालेबाजों के पाँव उखड़ने शुरू हो गये. "न खाऊंगा और न खाने दूंगा" के स्लोगन को अमलीजामा पहनाते हुए, जनता के लूटे धन को वापस लाना सबसे बड़ी चुनौती थी. कालेधन अरब और खरबपतियों के पास से इसे निकालने के लिए 8 नवम्बर-16 को 5 सौ और हज़ार के नोटों को चलन से बाहर कर दिया. भ्रष्टाचार में डूबे हुए लोगों ने किसी भी कीमत पर पीएम मोदी को रोकने का असफल प्रयास किया, अड़ियल पीएम ने नोटबंदी की रणनीति के अनुसार सारा काला-सफ़ेद धन बैंकों में जमा करा लिया. अब चलते हैं अर्थशास्त्र के नोबेल विजेता रिचर्ड थेलर और इस दौड़ में शामिल पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन की तरफ. कई वर्षों से भारत की अर्थव्यवस्था का अध्ययन कर रहे थेलर को मोदी जी की नोटबंदी का अंदाज़ पूरी तरह से सटीक लगा तो वो इसके समर्थन में खड़े हो गए, लेकिन पूर्व गवर्नर रघुराम राजन को नोटबंदी से क्यों और किस वज़ह से परहेज हुआ ये समझ के परे है. राजन ने नोटबंदी को सफल न हो पाने की बात कह दी. गवर्नर के पद पर रहते हुए भारत की अर्थव्यवस्था पर बारीक नज़र रखने वाले राजन इसकी सफलता को क्यों नहीं भांप पाये ये बात उन्हें सवालों के घेरे में ला खड़ा करती है. इसके उलट रिचर्ड थेलर ने व्यवहारिक अर्थशास्त्र के मनोविज्ञान के तहत केंद्र की मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले का गहराई से अध्ययन करते हुए, इसकी बारीकियों को समझते हुए समर्थन दे डाला था, जिसके चलते उन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ. ऊपर लिखी हंसी की बात का खुलासा करना ज़रूरी है. जब नोटबंदी हुई तो भ्रष्ट काले धनवानों ने असफल प्रयास के तहत मीडिया और सोशल मीडिया पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन के माध्यम से इसके विरोध में एकजुट हुए सभी चोरों ने प्रचारित करना शुरू किया कि देश में नोटबंदी से हाहाकार मच गया है. लोग भूखे मर रहे हैं. बेरोज़गारी की मार युवाओं पर पड़ रही है आदि-आदि बहुत से झूठ का जमकर फैलाया. इसी कड़ी में रघुराम राजन भी जुड़ गए जो ये कहते हुए विदेश वापस चले गए थे कि नोटबंदी को सफलता मिलना बहुत ही मुश्किल है. ये बयान जोर-शोर से सोशल मीडिया और मीडिया पर जमकर प्रचारित करने वालों को नोबेल पुरस्कार कमिटी ने ज़ोरदार झटका तब दिया, जब नोटबंदी का समर्थन करने वाले शिकागो यूनिवर्सिटी के रिचर्ड थेलर को अर्थशास्त्र का नोबेल विजेता घोषित कर दिया. अब इन बिके हुए प्रचारकों के लिए थेलर को हज़म करना बहुत मुश्किल दिखाई दे रहा है. कोई बड़ी बात नहीं है कि कल से  ही ये लोग गोलबंद होकर प्रोपोगंडा शुरू कर दें कि थेलर को नोबेल पुरस्कार मोदी के कहने से दिया गया है. बस यही बात सोच-सोच कर हंसी आ रही थी कि पीएम मोदी क्या इतने शक्तिशाली हो चुके हैं कि वो किसी को भी नोबेल पुरस्कार विजेता बनाने का दम रखते हैं. 
  

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