गुजरात: कांग्रेस को चाहिए बीजेपी के 99 के फेर में न पड़कर, बहुमत से 12 कम रह जाने पर चिंतन करे

एक बार फिर से कांग्रेस को गुजरात और हिमाचल में हार को गले लगाना पड़ा. 1995 से 2017 में पहुँचने भारतीय जनता पार्टी ने लगातार छठी बार गुजरात की सत्ता पर फिर से कब्ज़ा कर लिया. गुजरात में कांग्रेस छठी बार विधानसभा चुनाव में जातीय समीकरणों को लेकर उतरी. मुस्लिम वोटों का मोह छोड़ कर पाटीदारों, दलितों और ओबीसी के युवा नेताओं का सहारा लिया. लेकिन देश में चल रही मोदी लहर ये समीकरण भी नाकाफी रहे. लगभाग दो वर्षों से गुजरात में ही मोदी को पटखनी देने के लिए जातीय समीकरण में फिट बैठने वाले नेताओं को आन्दोलनों के माध्यम से अपने पाले में तो कर लिया, लेकिन इस समीकरण को मतों में पूरी तरह से तब्दील न कर सकी और 182 सीटों वाली गुजरात विधानसभा की मात्र 80 सीटें ही जीत सकी.जो बहुमत 12 सीटें कम रही. अब इस हार की खार को कम करने के लिए मोहल्ला क्रिकेट खेलने वाले बच्चों की तरह किलकारियां मार मारकर ये जतलाना रहे हैं कि देखो हमने मोदी की आंधी को 99 पर ही रोक लिया. कांग्रेस का इस चुनाव में सहयोगी बने नेता से ताज़ा-ताज़ा विधायक बनने वाले नेता जिग्नेश मेवाती से पीएम मोदी को संन्यास लेकर हिमालय जाने की बात कह कर इस हार की खार को कम करने का प्रयास किया है. 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद से गुजरात में खाली हुई मुख्यमंत्री की कुर्सी आनंदीबेन पटेल और विजय रुपानी नहीं भर सके. इसी के परनाम स्वरुप गुजरात की जनता में इस बात का गुस्सा था कि मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद इस पद के लिए सही व्यक्ति का चयन क्यों नहीं करके गए. अगर यहाँ पर ये कहा जाए कि कांग्रेस गुजरात के लोगों के इस गुस्से को कैश करा के चुनाव लड़ती तो तस्वीर कुछ और ही होती. 6 बार से लगातार सत्त्ता पर काबिज भाजपा के विरुद्ध हल्की सत्ता विरोधी लहर इसलिए थी कि मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद मुख्यमंत्री पद की भरपाई नहीं हो पायी थी. शायद इस बात को भांपने में कांग्रेस के राजनीतिकबाज़ विफल रहे. बिहार और यूपी की तर्ज़ पर जुगाड़ और जोड़-तोड़ की राजनीति में उलझे रहे. पहले पाटीदारों के नेता हार्दिक पटेल को लपेटा उसके बाद जिग्नेश (दलित नेता) और अल्पेश(ओबीसी नेता) को अपने पाले में करके जीत को सुनिश्चित मान बैठी. कांग्रेस को पता था की मुस्लिम वोटर मोदी से बहुत दूर है उसका वोट मिलना ही है. लेकिन ये गणित तब फेल हो गयी जब मोदी मंच से गुजरात की जनता से रूबरू हुए. मोदी को सामने पाकर जनता का सारा गुस्सा शांत होता चला गया और  99 विधानसभा सीटें छठी बार जीत लेना ये मोदी मैजिक के बस की ही बात थी.  राहुल का जनेऊधारी हिन्दू बनना और पाटीदारों को आरक्षण देना गुजरातियों को नौटंकी से ज़्यादा कुछ नहीं लगा.जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स कहने पिक्चर हाल में तालियाँ बज़वायी जा सकती हैं, लेकिन मतदाता को अपने समर्थन में मतदान करवा लेना मुश्किल होता है. सत्ता विरोधी हवा के बीच अगर कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार सिर्फ गुजरात की जनता के बीच मोदी से अच्छा विकल्प देने की बात कहते तो तिकड़ी मुकाबले में  ज़्यादा नफे में रहते. नरसिम्हा राव के शासनकाल से ही कांग्रेस तिकड़ की राजनीति पर भरोसा करने वाली कांग्रेस का ये दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि वो सत्ता विरोधी हवा का लाभ उठाने में पूरी तरह से विफल रही. पूरी ताक़त गुजरात में झोंक देने के कारण हिमाचल प्रदेश ही हाथ से निकल गया. अगर कांग्रेस के नेता इन दोनों राज्यों के चुनाव पर मंथन करें तो समझ में आ जाएगा कि वीरभद्र सिंह चुनाव क्यों हारे और गुजरात में चुनाव जीतने से क्यों दूर रह गए. क्रिकेट मैच की तरह 99 के फेर में न पड़कर इस पर मनन करें कि छठी बार भी कांग्रेस को बीजेपी ने पटखनी कैसे दे दी. 

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