यूपी लोकसभा उपचुनाव: भा गयी साइकिल को हाथी की सवारी

मई 2014 से मार्च 2018 तक आते-आते यूपी के भाजपा नेताओं ने मोदी मैजिक से लोकसभा, विधानसभा और निकाय चुनाव में शानदार जीत दर्ज की, लेकिन लोकसभा चुनाव के चार साल पूरे होते-होते प्रदेश के नेता अपने नकारेपन के कारण इस जीत को बरकरार नहीं रख सके. प्रदेश के सभी छोटे-बड़े नेता हैं तो अत्याधिक महत्वाकांक्षी, लेकिन इसे पूरा करने के लिए करना कुछ नहीं चाहते हैं. इसी का नतीजा है कि बीजेपी के जो प्रत्याशी 2014 में मोदी लहर में फूलपुर और गोरखपुर सदर से लाखों मतों के अंतर से जीत कर संसद भवन पहुंचे थे, उपचुनावों दोनों सीटों पर चल रही मतगणना में बीजेपी के दोनों प्रत्याशी लगातार हार की तरफ बढ़ते जा रहे हैं. 23वें राउंड की मतगणना पूरी हो चुकी है. दोनों ही सीटों सपा-बसपा गठबंधन के प्रत्याशी लगभग 28 हजार वोटों से  बढ़त बनाये हुए हैं. आखिरी दौर की मतगणना के बाद बीजेपी के पक्ष या विपक्ष में क्या परिणाम आता है वो तय करेगा यूपी के भाजपा नेताओं का भविष्य. मोदी लहर में मिली सफलता हो इतनी जल्दी खो देंगे ये बात किसी ने भी नहीं सोची होगी. ये लीपा-पोती करना कि अगर सपा बसपा में गठबंधन न हुआ होता तो हम ही जीतते तो इन नेताओं के लिए शर्मनाक है. ऊपर अत्याधिक महत्वाकांक्षा शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया कि जिन दो सीटों पर चुनाव हो रहे हैं, उस पर काबिज़ नेता केशव मौर्य और योगी आदित्यनाथ विधानसभा चुनाव में सफलता पाने के बाद यूपी के सीएम की होड़ में शामिल हो गए, आखिरकार भाजपा हाई कमान को दोनों को ही उपमुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री बनाना पड़ा. दोनों ही नेताओं ने ऊँचे पद पाने के बाद क्षेत्र की जनता की तरफ देखा होता तो जनाधार इतनी बुरी तरह से और इतनी जल्दी न दरकता. भाजपा हाई कमान को भी इस बात का अंदाजा नहीं होगा कि एक बेढ़ंगा गठबंधन इस उपचुनाव में इस तरह से पटखनी दे देगा. 2014 के लोकसभा चुनाव में कुल पड़े मतों का 50 फीसदी वो पाने वाली बीजेपी, बाकी प्रतिशत में तीनों बसपा, सपा और कांग्रेस व अन्य के हिस्से आये वोट भी मिलकर जीत नहीं सकते थे. सपा-बसपा के पिछले मतों को जोड़ा जाए तो भी बीजेपी जीत दर्ज करने में सक्षम थी. केंद्र में यूपी से लगभग दर्ज़न भर मंत्री बनाए गए कोई भी जनता को अपने पास नहीं रोक सका. लगता है सभी को अगले चुनाव में एक बार फिर से मोदी मैजिक का ही सहारा था, जिसके चलते सभी सांसद और विधायक जनता के दर्द को समझने के प्रयास में नहीं लगे. ज़्यादातर भाजपा सांसद सिर्फ गाल बजाते रहे. राजधानी लखनऊ एक ऐसी जगह है. जहां यूपी और बिहार से व्यक्ति आकर रोटी की तलाश करता है. ऐसे जिस भी बन्दे से भाजपा सांसदों के गुड वर्क के बारे में पूछा सब का यही जवाब होता था, भैया दूसरों से कुछ अलग किया होता तो यहाँ खेत छोड़कर मज़दूरी करने न आते. इसी बात से समझ में आने लगा था कि यूपी के भाजपा नेता आज भी नकारे बैठे हैं. उनमें मोदी लहर की जीत भी उत्साह नहीं भर सकी है. अगर सभी बीजेपी सांसदों ने अपने हिस्से का काम अपने कार्यक्षेत में किया होता तो आज बीजेपी की तस्वीर और बेहतर होती. कुल मिलाकर आखिरी दौर में अगर बीजेपी जीत(मतगणना से ऐसा होता नज़र नहीं आ रहा है)भी जाती है तो यूपी के भाजपाइयों ने सपा-बसपा को जीत के मन्त्र के रूप में गठबंधन जैसा ब्रह्मास्त्र अपने कर्मण्यता  के कारण थमा दिया है. जिसके चलते यूपी में भाजपा एक बार फिर से हाशिये पर पहुँच जायेगी. लोकसभा में मिली सीटों के आंकड़े उलटकर 71 से 17 होने में वक़्त नहीं लगेगा. जो गलती पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने विकास का मुद्दा छोड़कर, हाथ पकडने की, वहीँ गलती यूपी के भाजपा नेताओं ने भी कर डाली. प्रधानमंत्री मोदी के विकास को छोड़कर धर्म की राजनीति को अपना कर की. अब एक बार फिर से यूपी में जाति और धर्म की राजनीति फिर से वापसी कर रही है. ये इस उप चुनाव के नतीजों से समझ में आ सकता है. इस समीकरण में भाजपा कभी भी जीत नहीं सकी है. कल्याण सिंह के बाद लगभग तेरह वर्ष का सूखा 2014 ख़त्म हुआ था, लेकिन यूपी के नकारे नेताओं ने अब एक बार फिर से उस सूखे को अपनाने पर मज़बूर है. वैसे तो उपचुनाव में इन दो सीटों को हारने से केंद्र की सत्ता पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है, लेकिन इन दो सीटों के चुनावों ने गैर-भाजपाइयों को 2019 में केंद्र की सत्ता तक पहुँचने का रास्ता ज़रूर दिखा दिया है.

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