यूपी उपचुनावों में गैरभाजपाई दलों के जीत जाने से लोकतांत्रिक चुनाव प्रकिया को मिली मज़बूती
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने आनन-फानन में गठबंधन करके यूपी में दो सीटों पर हुए उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी से 2014 के लोकसभा में जीती सीटें बहुत ही कम मार्जिन से छीन लीं. अगर न जीत पाते तो वोटिंग मशीन और चुनाव आयोग से बीजेपी सेटिंग हो गयी का राग अलापते हुए हम चुनाव हार गए के साथ छाती कूटने लगते.जीत जाने की वज़ह से वोटिंग मशीन और चुनाव आयोग पर आरोपों की बौछार नहीं हुई और लोकतंत्र बच गया. इस जीत के बाद मोदी विरोधी मीडिया जरूर उटपटांग राजनीतिक गणित बैठाने में जुट गया. उपचुनाव की दोनों सीटें हार जाने पर मोदी विरोधी मीडिया के कथित राजनीतिक धुरंधरों ने कयास लगाने शुरू कर दिए कि ये हार बीजेपी के लिए 2019 में होने वाले लोकसभा के लिए खतरे की घंटी है. इसका सीधा सा मतलब ये निकलता है कि अगर यूपी में बसपा,सपा और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ेंगे तो शत-प्रतिशत सफलता पा सकते हैं. एक बार फिर ये बात लिखना चाहूँगा, कि यूपी में जनता की नब्ज़ को कभी भी नहीं पकड़ा जा सकता है. हमेशा ही यूपी के चुनावों में कयासों से उलट परिणाम आते रहे हैं. इसका उदाहरण हैं यूपी के लोकसभा और विधानसभा चुनाव. किसी भी न्यूज़ चैनल और न्यूज़ पेपर की भविष्यवाणी सही साबित नहीं हो पायी थी. ऐसी भ्रामक भविष्यवाणियों के चलते बुरी तरह हारने के बाद गैर भाजपाई दलों ने छाती कूटनी शुरू कर दी थी कि इवीएम से छेड़छाड़ करके बीजेपी चुनाव जीत रही है. लोकतांत्रिक प्रक्रिया को संचालित करने वाले चुनाव आयोग को ही अपनी बुरी तरह हुई हार की खार के निशाने पर ले लिया था. चैनलों और न्यूज़ पेपर्स को चाहिए ऐसे फ़ालतू और बचकाने कयास लगाना छोड़ दे. अगर पत्रकार इतने ही बड़े राजनीति की गणित के महारथी हैं तो आज ही इस बात की भविष्यवाणी क्यों नहीं कर देते कि 2019 में भाजपा को लोकसभा में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ेगा. ज्यादातर चैनल और न्यूज़ पेपर के मालिक सिर्फ एक ही लीक पर चल रहे हैं मोदी विरोध. पहले ये पिछली केंद्र सरकारों और राज्य सरकारों से अच्छी लाइजिनिंग करके मोटी कमाई करते रहते थे, अब वो बंद हो गयी है. बस यही कारण मोदी विरोध बन गया है. सरकारी विज्ञापनों आदि की मदद से चलने वाले समाचार-पत्रों को अपने पेपर्स की सही बिक्री दिखानी पड़ रही है. जिसके चलते करोड़ों रुपये का विज्ञापन और प्रिंटिंग पेपर पर पर मिलने वाली मोटी सब्सिडी खतरे में पड़ गयी है. इसके लिए पीएम मोदी के कड़े कदम हैं. वापस चलते हैं यूपी के उप चुनाव में एक हाथ दे, एक हाथ ले और समय से पहले किये गए सपा-बसपा गठबंधन की तरफ. सपा और बसपा ने अपने-अपने नंबर बढाने के लिए इस उप चुनाव में हाथ मिलाया. बसपा सुप्रीमो मायावती ने, समाजवादीपार्टी को हाथी पर सवार करके बदले में फिर से अपने राज्यसभा जाने का मज़बूत रास्ता बनाया और इसके साथ ही अन्य राज्यों में अपनी जमीन तलाश करने का मौक़ा भी हासिल कर लिया. यूपी की सत्ता पर पूरे पांच साल राज करने वाले अखिलेश यादव को सभी राजनीतिक विश्लेषक बुद्धिमानी भरे गठबंधन के फैसला लेने वाला राजनेता बताने में जुटे हुए हैं. लेकिन ये वो परदे के पीछे चले खेल को नहीं देख पा रहे हैं. अगर ये सपा से बसपा सुप्रीमो के किये गठबंधन पर गहराई से विश्लेषण करें तो समझ में आ सकता है कि दो सीटों पर बसपा के समर्थन ने कितना ज़्यादा अपनी दरक चुकी जमीन को पुख्ता कर लिया. इस हाथ मिलाने के बाद चुनाव में जीत के प्रति दोनों दल इतने ही आस्वसत थे तो क्यों नहीं अखिलेश या मायावती ने खुद चुनाव लड़ने का मन बनाया. इस बात से साफ़ समझ में आ सकता है कि पिछले लोकसभा और विधानसभा मिली बुरी तरह हार का डर दोनों ही पार्टी के मुखियाओं को था. इसी सोच के चलते दोनों मुखियाओं ने प्यादों को ही आगे किया ताकि हार जाने पर वोटिंग मशीन पर आरोप मढ़ने में आसानी हो. सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव उप चुनाव की दोनों लोकसभा सीटें जीत कर फूले नहीं समा रहे हैं, लेकिन वो ये नहीं देख पा रहे हैं कि उन्होंने यूपी में बीजेपी को एक बार फिर से शत-प्रतिशत जीत की स्ट्रैटिजी बनाने का मौक़ा देकर अपने लिए 2019 में फिर से हार की तैयारी को बुलावा दे दिया है. शायद ये बातें. दोनों दलों के नेताओं को समझ में न आये लेकिन आगामी लोकसभा के चुनाव में समझ में आ जायेगी. सभी धुरंधरों को अच्छे से ज्ञान है कि टीम मोदी को चुनाव में इतनी आसानी से हरा लेना मुश्किल ही नहीं, नमुमकिन भी है. गठबंधन करने वाले भाजपा विरोधी प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी के हार के बाद दिए बयान को शायद नहीं समझ पाए. उन्होंने सीधे से इस बात को कहा कि आनन-फ़ानन में हुए सपा-बसपा गठबंधन को समझने में हमने गलती की. इस पर अगर गैर भाजपाई दल गहराई से विचार करें तो उन्हें बेहतर समझ में आ सकता है कि ये गठबंधन सिंहासन के फाइनल में किया गया होता तो पीएम मोदी की कुर्सी को हिला सकता था. वैसे दोनों ही दलों को ये पंक्तियाँ समर्पित 'अब पछताए या होय, जब चिड़िया चुक गयीं खेत' जल्दी के काम में चूक हो जाने की पूरी संभावनाएं होती हैं. इस उप चुनाव में एक बात बहुत अच्छी रही कि दोनों सीटें जीत कर सपा-बसपा ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को लागू करने वाली वोटिंग मशीन को लेकर इन पार्टियों के आरोप-प्रत्यारोप नहीं झेलने पड़े.



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