अन्ना के किसान आन्दोलन की सफलता-असफलता स्मार्ट और एड्रायड फोनधारी पत्रकारों पर निर्भर है
अब एक बार फिर से दिल्ली के रामलीला या किसी अन्य मैदान पर सोशल एक्टिविस्ट अन्ना हजारे भूख हड़ताल करने पर आमादा हैं. आम जनता को लोकपाल न दिला पाने वाले अन्ना, किसानों के लिए आन्दोलन करने जा रहे हैं. उन्हें थीइक चुनाव की दस्तक के समय ही आम जनता के दर्द की याद आती है. लगभग 6-7 साल पहले अन्ना हजारे अपने परम शिष्य अरविन्द केजरीवाल के साथ मिलकर जनता को जन लोकपाल दिलाने के लिए केंद्र की यूपीए सरकार के खिलाफ आन्दोलन किया था. 13 दिन की भूख-हड़ताल के बाद कुछ भी हाथ न लग पाने के बाद रस पीकर अपना व्रत तोड़ा और वापस रालेगण अपने घर वापस चले गए थे ये कह कर कि अगर लोकपाल नहीं बना तो वो फिर से आकर आन्दोलन करेंगे. न लोकपाल बना और न ही अन्ना दोबारा आन्दोलन करने दिल्ली पहुंचे. हाँ दिल्ली और केंद्र की सत्ता में परिवर्तन हो गया. केंद्र में मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार तो आन्दोलन में सबसे करीब रहे अरविन्द केजरीवाल ने सरकार बना ली. दोनों ही जगह से कांग्रेस का सफाया हो गया . दिल्ली में चेले के मुख्यमंत्री बन जाने के कारण अन्ना हजारे लोकपाल की बात को भूल गए और लगभग सात साल पहले किये आन्दोलन के बाद लोकसभा चुनावों की दस्तक सुनाई देते ही अन्ना हजारे एक बार फिर से आंदोलित हो गए हैं. इस बार मुद्दा जन लोकपाल की जगह किसानों की बदतर हालात का मुद्दा है. बहुत अच्छी बात है. आम जनता में से किसी एक व्यक्ति को बीच-बीच में आन्दोलन करके केंद्र और राज्यों की सरकारों को जगाते रहना चाहिए. ये नहीं कि एक बार जगाकर खुद सो जाओ और चुनाव के पहले जागने और मीडिया को साधकर खबर के लिए स्पेस बना आन्दोलन की बात करने लगो. अन्ना हजारे जी को ये बात याद रखनी चाहिए. सो सो-कर जागने से आम जनता ये समझने लगती है कि ऐसे आन्दोलन किसी पार्टी विशेष को लाभ पहुंचाने लिए किया जा रहा हैं. पिछली बार के अन्ना हजारे के जनलोकपाल आन्दोलन पर कई चैनल 24 घंटे का लाइव चैनल चला रहे थे. इसमें अन्ना के भूख हड़ताल स्थल पर लगा कैमरा वहां हो रही हलचल पर पल-पल की खबर दे रहा था. देश की जनता को ये महसूस होने लगा कि देश का चौथा स्तम्भ अपनी जिम्मेदारी को समझने लगा है, लेकिन इस लाइव कवरेज की पोल तब खुली जब एक राष्ट्रीय चैनल के एंकर ने आन्दोलन के बाद पैदा हुई आम आदमी पार्टी को पत्रकार पद से इस्तीफा देकर जॉइन कर लिया. इस नयी नवेली पार्टी को इस आन्दोलन का पहली बार भरपूर लाभ नहीं मिल पाया और दिल्ली में सरकार बनाने के लिए उसी पार्टी से हाथ मिलाकर समर्थन जुटाया जिसके खिलाफ भ्रष्टाचार का बिगुल फूका था. कुछ ज्यादा पाने के लिए आप के मुखिया ने 49 दिन में ही इस्तीफा दे दिया और 2014 लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए मैदान में कूद पड़ी. आन्दोलन को पूरे देश में मिले जनसमर्थन के कारण आम आदमी पार्टी को केंद्र में गैर यूपीए और गैर एनडीए के दलों के साथ मिलकर केंद्र की सत्ता में कुछ बड़ा पाने की उम्मीद थी लेकिन इसके उलट गुजरात से चले नरेंद्र मोदी ने इस सपने को पूरा नहीं होने दिया. अपनी ईमानदार छवि और विकास की बात करने के कारण जनता ने हाथों हाथ लिया, कुछ दलों को छोड़कर ज़्यादातर राजनीतिक को बुरी हार का सामना करना पड़ा. नवगठित अन्ना आन्दोलन से पैदा हुई 'आप' सिर्फ 4 लोकसभा सीट ही हासिल हो पायीं थी. एक बार फिर से अन्ना चेले या किसी अन्य दल को कुछ ज़्यादा दिलाने के लिए किसानों की आड़ में आन्दोलन की राह पर चल पड़े हैं. अन्ना हजारे को ये नहीं भूलना चाहिए कि सोशल मीडिया के इस युग में चैनलों से तेज़ फेस बुक के युवा युवा दौड़ रहे हैं. सोशल मीडिया पर इनकी सक्रियता के कारण ही नेशनल चैनलों ने भी इसका सहारा लेना शुरू कर दिया है. अब हर स्मार्ट और एंड्रायड फोनधारी किसी भी चैनल के पत्रकारों से भी तेज़ रफ़्तार से देश के किसी भी कोने की खबर को अपनी उँगलियों के माध्यम से आम लोगों तक पहुंचा देता है. इसलिए इस बार अन्ना हजारे के आन्दोलन बहुत ही जटिल रास्तों से गुजरना पड़ेगा. इससे कैसे बच कर रह पायेंगे ये आन्दोलन के बाद ही पता चलेगा.



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