मायावती के लिए पार्टी और गठबंधन को संभाले रखना एक बड़ी चुनौती

लोकसभा के उप चुनाव में बसपा-सपा ने अचानक गठबंधन करके गोरखपुर और फूलपुर की दोनों सीटें जीती तो दोनों ही दलों को समझ में आ गया कि अगर गठबंधन चलता रहा तो और लोकसभा 2019 तक साथ रहे तो इस जीत के हिसाब से 80 में से दोनों के हिस्से 40-40 सीटें आ जायेंगी और केंद्र में गठबंधन की सरकार बनने पर किंग मेकर की भूमिका में होंगी. कुछ इसी तरह का सोचना गलत नहीं है. सफलता पिछले सारे दर्द को भुला देती है, यही इन दोनों सहयोगियों के साथ हुआ. इस जीत के बाद दोनों में और ज्यादा नज़दीकियाँ हो गयीं. जिसके चलते अगली रणनीति राज्यसभा में दो सीटें जीतने की होतीं तो बीजेपी नौवीं सीट न जीत पाती. शायद राज्य सभा चुनाव को भूलकर दोनों ही दल केंद्र की सत्ता के लिए मिलकर बिसात बिछाने में लग गये. होना भी यही चाहिए था. चार वर्षों में बुरी तरह हिल चुकी पार्टियों को उपचुनाव की ख़ुशी ने राज्यसभा की तरफ देखने नहीं दिया. ये इंसानी फितरत होती है कि वो बहुत समय बाद मिली ख़ुशी में आँखें बंद कर लेता है. बसपा मुखिया अगर इस बात पर विचार करतीं कि उपचुनाव में उन्हें कुछ भी नहीं मिला है तो वो राज्यसभा में अपनी पार्टी की उपस्थिति दर्ज कराने के लिए अपने एक प्रत्याशी को जिताने के लिए सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पर थोड़ा दबाव बना ही सकती थीं. लेकिन ऐसा न करके के उन्होंने सीधा लोकसभा को लक्ष्य बना लिया होगा. 2019 में कौन कितनी सीटों पर लड़ेगा इसकी तैयारी बसपा मुखिया ने कर ली होगी. यही उनकी भूल थी. बड़े लक्ष्य को पाने के लिए छोटे लक्ष्य को साधना होता है. इसी गलती ने मायावती की बसपा को एक बार फिर से संसद भवन के दोनों सदनों से दूर कर दिया. राज्यसभा में बसपा प्रत्याशी की हार ने पार्टी के अन्दर हलचल पैदा कर दी. जब समय पार्टी की टूट-फूट की मरम्मत का था. ऐसे समय में राज्यसभा की सीट हार जाना बसपा में 2019 आते-आते भगदड़ न मच जाए. किसी भी दल का नेता पांच साल का बनवास नहीं काटना चाहता है. कुछ इसी सोच के चलते बसपा और सपा में कुछ भी हो सकता है. दोनों ही दलों को अच्छे से पता है कि पीएम मोदी का क़द इतना बढ़ चुका है कि उसके सामने सभी दल बौने साबित हो रहे हैं जीत-दर जीत के साथ एक एक राज्य को फतह करते जा रहे मोदी को रकने के लिए बनाए गठबंधन में कुछ ऐसे छेद हैं जिन्हें न देख पाने के कारण उप चुनाव में मिली ख़ुशी राज्य सभा में मिली हार के कारण गम में बदल गयी चाहते हुए भी समाजवादी पार्टी राज्यसभा पहुंची जया बच्चन की जीत की ख़ुशी नहीं मना सकती है. राज्यसभा में बसपा प्रत्याशी की हार पर मायावती के जो बयान आ रहे हैं वो उनकी खीज से भरे हुए हैं. सुप्रीमो का कहना है कि सरकारी मशीनरी का बीजेपी ने दुरुपयोग किया है. धनबल से बीजेपी ने 9वीं सीट जीती है आदि कई तरह के कुतर्क दे रही हैं. क्या पार्टी मुखियाओं मायावती और अखिलेश यादव को नरेश अगरवाल के पुत्र और राजा भैया से वोट पाने की उम्मीद थीं. शायद नहीं होगी. नाम के अनुरूप राजा भैया पर किसी भी तरह का कोई भी दबाव काम नहीं करने वाला था. निर्दल चुनाव जीतने वाले रघुराज प्रताप सिंह पिछली बातों को कैसे भुला सकते थे. उन्होंने राज्यसभा चुनाव से दो दिन पहले ही कह दिया था कि वो दोस्ती निभायेंगे लेकिन बसपा प्रत्याशी को कतई वोट नहीं देंगे. बसपा सुप्रीमो इन बातों को सरकारी मशीनरी से जोड़कर कर सिर्फ इसलिए दिखा रही हैं ताकि उनके पास बचे-खुचे नेता भी पाला न बदल लें. किसी समय जीत की गारंटी कही जाए वाली मायावती को एक बार फिर से सपा के साथ चलने वाले अन्य लोगों के बारे में सोचना पड़ेगा. बयान देकर खुद को तो दिलासा दे सकती हैं, लेकिन के नेताओं को सब कुछ समझ में आ रहा है. सपा ने लोकसभा और राज्यसभा दोनों में ही कुछ पाया ही है वहीँ सहयोग देने वाली पार्टी बसपा को कुछ भी हासिल नहीं हो सका है. राज्यसभा के चुनावों ने कुछ ऐसे ज़ख्म दे दिए हैं जिन्हें भरने के लिए दोनों ही दलों के लिए एक-दूसरे के साथ खड़े रहने की बहुत बड़ी चुनौती है. सपा और बसपा मुखिया अगर गठबंधन के छेदों को नहीं देख पा रहे हैं तो ये उनकी अदूरदर्शिता को बतलाता जान पड़ रहा है. अब देखना ये है कि गठबंधन की गाँठ कब तक बंधी रहती है.

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