म्यांमार की पीएम आंग सान सूकी: महान व्यक्ति की छवि विकृत करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी षडयंत्र होते है

आज एक अप्रैल है. मन में इस बात के लिए उछाल पैदा हुई कि १ अप्रैल को मूर्ख दिवस के रूप में क्यों मनाया जाता है. यह जानने के लिए मैंने गूगल पर सर्च इसलिए किया कि आज के दिन कोई महान हस्तियाँ तो नहीं पैदा हुई थी. बहुत खोज करने के बाद भी कोई भी बन्दा ऐसा नहीं मिला जो एक अप्रैल को पैदा हुआ हो और आगे चलकर कोई महान कार्य किया हो. कुछ लोगों की हरक़ते देखकर लगता था कि वो आज १ अप्रिअल को जन्में होंगे.लेकिन निराशा ही हाथ लगी. हाँ तीन २ अप्रैल को जन्म लेने वाले मिले एक कपिल शर्मा दूसरे फिल्म एक्टर अजय देवगन और तीसरे महान कलाकर बड़े गुलाम अली. एक अप्रैल को जन्में लोगों की कई घंटे खोज करते हुए एक जाना पहचाना चेहरा दिखाई दिया. आज सभी ख़ास कर भारत के लोग उन्हें अच्छे से जानने लगे हैं. ये महान हस्ती म्यांमार की स्टेट काउंसलर आंग सान सू की हैं. इनके बारे में अभी तक यही मालूम था कि म्यांमार से भाग कर भारत आने वाले रोहिंग्या मुसलमानों का नरसंहार किया था. दुनिया के मीडिया जगत ख़ास कर भारतीय मीडिया ने उन्हें एक ह्रदयहीन राजनेता के रूप में लोगों के सामने पेश किया था. जो मीडिया ने बताया उसे सभी की तरह मैंने भी मान लिया था. लेकिन आंग सान के बारे में जब पढ़ा तो सर चकरा गया. 19 जून 1945 को आंग सान सू की का रंगून में जन्म हुआ था. उनके जन्म के दो साल बाद उनके पिता जो बर्मा के राष्ट्रपिता कहलाते थे कि विरोधियों ने 1947 में हत्या कर दी थी. सूकी का जीवन कितना संघर्षपूर्ण रहा होगा ये बात उनके पिता की हत्या हो जाने के बाद की परिस्थितियों से ही समझा जा सकता है. इसके बावजूद परिस्थितियों से संघर्ष करते हुये कई माइलस्टोन स्थापित किये.  नई बर्मी सरकार के गठन के बाद सू की की माँ खिन कई एक राजनीतिक शख्सियत के रूप में प्रसिद्ध हासिल की। उन्हें १९६० में भारत और नेपाल में बर्मा का राजदूत नियुक्त किया गया। अपनी मां के साथ रह रही आंग सान सू की ने लेडी श्रीराम कॉलेज, नई दिल्ली से १९६४ में राजनीति विज्ञान में स्नातक हुईं। सू की ने अपनी पढ़ाई सेंट ह्यूग कॉलेज, ऑक्सफोर्ड में जारी रखते हुए दर्शन शास्त्र, राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र में १९६९ में डिग्री हासिल की। स्नातक करने के बाद वह न्यूयॉर्क शहर में परिवार के एक दोस्त के साथ रहते हुए संयुक्त राष्ट्र में तीन साल के लिए काम किया। १९७२ में आंग सान सू की ने तिब्बती संस्कृति के एक विद्वान और भूटान में रह रहे डॉ॰ माइकल ऐरिस से शादी की। अगले साल लंदन में उन्होंने अपने पहले बेटे, अलेक्जेंडर ऐरिस, को जन्म दिया। उनका दूसरा बेटा किम १९७७ में पैदा हुआ। इस के बाद उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ओरिएंटल और अफ्रीकन स्टडीज में से १९८५ में पीएच.डी. हासिल की।बहुत उतार चढ़ाव के बाद आंग सान लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई प्रधानमंत्री, प्रमुख विपक्षी नेता और म्यांमार की नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी की नेता हैं। आंग सान को १९९० में राफ्तो पुरस्कार व विचारों की स्वतंत्रता के लिए सखारोव पुरस्कार से और १९९१ में नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया है। १९९२ में इन्हें अंतर्राष्ट्रीय सामंजस्य के लिए भारत सरकार द्वारा जवाहर लाल नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लोकतंत्र के लिए आंग सान के संघर्ष का प्रतीक बर्मा ने पिछले २० वर्ष कैद में बिताए। इन्हें १३ नवम्बर २०१० को रिहा किया गया है. सर इस बात पर चकराया कि जिस आंग सान सूकी को बुद्धिजीवी थीं उन्हें १९९० में राफ्तो पुरस्कार व विचारों की स्वतंत्रता के लिए सखारोव पुरस्कार से और १९९१ में नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया है। १९९२ में इन्हें अंतर्राष्ट्रीय सामंजस्य के लिए भारत सरकार द्वारा जवाहर लाल नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उस नोबेल शान्ति पुरस्कार मिला हो उस पर होहिंग्या मुसलामानों के नरसंहार के आरोप लगे ये कहाँ तक सत्य हैं. जिस तरह से सोशल मिडिया और भारत का प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया बता और दिखा रहा था.वो सूकी के स्थापित माइल स्टोन के ठीक उलट तस्वीर दिखती है. यूएन ने भी म्यांमार में हुए दंगों के बाद हुए नरसंहार के लिए उन्हें दोषी माना था. इससे साफ़ पता चलता है कि पूर्वाग्रह या जानबूझकर दिखाई गयी विकृत तस्वीर के चलते नोबेल शान्ति पुरस्कार विजेता सूकी की छवि को कसी षडयंत्र के तहत विकृत रूप दिया गया था. आज अगर सोशल मीडिया पर दिखाई व बतायी जाने वाली जो चीजें परोसी जाती हैं, उससे किसी विशेष व्यक्ति का लाभ होने की तरफ इशारा करता है. किसी मुस्लिम ने मुझे दो वीडियो व्हाट्सअप जोड़-तोड़ करके बनाए गए वीडियों भेजे थे, वीडियो में कुछ काले लोगों को पत्तों के बीच जिंदा जलाया जा रहा है. इन्हें देखने के बात उस मित्र को बताया कि ये रोहिंग्या मुसलामानों के वीडियों नहीं हैं ये करीब 6 साल पहले भी देखे हैं इन्हें आगे न भेजना. म्यांमार से आने वाली बर्बर हिंसा की तस्वीरे और ख़बरें ये सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या कोई शांतिप्रिय इंसान जिसने दुनिया का सर्वोच्च सम्मान नोबेल जीता हो वो इतना हिंसक भी हो सकता है. 
  

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