लोकसभा चुनाव 2019 : कौन खोलेगा केंद्र की सत्ता तक पहुँचने वाले रास्ते का दरवाज़ा

आगामी लोकसभा चुनाव में सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दल बढ़त लेने की जुगत में जोड़-तोड़ में लगे हुए हैं. कांग्रेस, वामपंथी और आम आदमी पार्टी आदि को जब 2014 के लोकसभा चुनाव में मनमुताबिक परिणाम नहीं मिल सके, तब से ही इन दलों ने एक एजेंडा बना लिया कि मोदी सरकार के किसी भी कार्य विरोध के लिए विरोध करते रहेंगे. इन दलों के विरोध के चलते अब चुनाव का पांच साल में एक बार आने वाला फेस्टिवल जैसा नहीं रहा. जब से पीएम मोदी के बढ़ते कद के कारण बौने साबित हो रहे क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दल किसी भी चुनाव या उप चुनावों को बहुत ही सीरियसली लेने लगे हैं. कुछ दशक पहले तो कांग्रेस ही केंद्र की सत्ता पर काबिज़ रहती थी, लेकिन जब से अन्य दलों में गठबंधन होने लगा है, तब से कांग्रेस के एकछत्र राज की मोनोपोली ध्वस्त हो गयी है. जनता पार्टी के केंद्र में जन्म लेने के बाद से कांग्रेस का केंद्र की सत्ता से वर्चस्व ख़त्म हो गया और क्षेत्रीय दोलों ने मिलकर, जनता दल, तीसरा मोर्चा, राष्ट्रीय मोर्चा, महा गठबंधन की सरकारों को बनाने में सफलता पायी. लेकिन दलों के आपसी मत-भेद कुछ ही सालों में मनभेद में बदलने लगे जिसके चलते जोड़तोड़ की सरकारें पांच साल का कार्यकाल पूरा करने के पहले ही दम तोड़ती रहीं. 80 के दशक में जन्मी भारतीय जनता पार्टी ने पहली बार क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर एनडीए बनाया. इसी के साथ क्षेत्रीय दलों का महत्व बढ़ने लगा. देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने भी इसके महत्व को समझ लिया था, जब राज्यों में फैली कांग्रेस नए नए क्षेत्रीय दलों से जीतने के लिए लड़ना पड़ा. राज्य की चिंता कम खुद की चिंता ज्यादा करने वाले इन क्षेत्रीय दलों ने  अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में ज्यादा जुटे रहे. देखा गया है कि क्षेत्रीय दल उस समय ज़्यादा सक्रिय हो जाते हैं, जब उन्हें अपना अस्तित्व ख़त्म होता जान पड़ता है. उन्हें अच्छे से मालूम रहता है कि कांग्रेस या बीजेपी के साथ हो लेंगे तो अस्तित्व के साथ ही अपनी इच्छाओं की भी पूर्ति कर सकते हैं. दस साल तक घोटालों के लिए बदनाम कांग्रेस के खिलाफ कई नए दलों ने और नेताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया. जिसके परिणाम स्वरूप एनडीए ने 335 सीटें जीत कर कांग्रेस को बुरी हार से दो-चार करवाया. देश पर ईमानदार और विकास की छवि के चलते मोदी ने पीएम पद सँभालते ही कांग्रेस समेत कई क्षेत्रीय दलों को राज्यों से उखाड़ फैंका. ताज़ा हुए चुनाव में त्रिपुरा में 25 वर्षों से सत्ता पर काबिज वामपंथियों के वर्चस्व को ख़त्म कर डाला. ऐसा ही अन्य राज्यों में यूपी में भी कुछ ऐसा ही देखनेको मिला. बार तुम एक बार हम की तर्ज़ पर सत्ता सुख लेने वाले समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी दोनों को ही लोकसभा और विधानसभा में बुरी हार का मुंह देखना पड़ा. इसके  चलते सभी दलों ने पीएम मोदी को रोकने के लिए लामबंद होना शुरू कर दिया. दक्षिण राज्य आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू को लगने लगा कि कहीं ऐसा न हो कि राज्य में उनकी ताक़त कम हो जाए और बीजेपी मज़बूत हो जाए. अत्याधिक महत्वाकांक्षाओं के चलते लोकसभा चुनाव से पहले ही यह कटे हुए किनारा कर लिया कि मोदी सरकार ने आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा देने का वादा किया था को पूरा न करने के कारण अलग हो गए, जन पड़ता है कि नायडू के इस फैसले के पीछे यही एक कारण नहीं रहा होगा. कभी कांग्रेस में रहे तेदेपा के संस्थापक एनटीआर ने अपनी अलग पहचान बनाने में सफलता पायी थी. हो सकता है कि नायडू की कुछ बड़ा पाने की इच्छा ने उन्हें ऐसा करने पर मज़बूर किया हो. अटल सरकार का हिस्सा रहे नायडू को शायद पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष के इस बयान ने अपने अस्तित्व के लिए सतर्क किया हो जिसमें उन्होंने एनडीए की सरकार के सब का साथ सबका विकास का हश्र अटल के शाइनिंग इण्डिया जैसा होने की बात कही थी. नायडू की इस सोच में दूरद्रष्टि का अभाव प्रतीत होता है. अगर ऐसा होता तो बीजेपी से नाता तोड़ लेने वाले नीतीश कुमार जैसे साफ़ सुधरी छवि के मुख्यमंत्री नितीश कुमार फिर लौट कर वापस एनडीए में न आते. बीते दिनों बसपा सुप्रीमो मायावती भी ज़मीन तलाशते हुए हरियाणा में अभय चौटाला जोकि घोटाले के चलते जेल में बंद ओपी चौटाला के पुत्र हैं की आईएनएलडी  के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का निर्णय कुछ ऐसा लग रहा है कि अंधे और अपाहिज की जोड़ी. दोनों ही कई बार के चुनावों के बाद राज्य की सत्ता से दूर हैं. एक दूसरे को कैसे सपोर्ट कर पाएंगी ये विचार करने योग्य सवाल है. कुल मिलाकर इस वक़्त एनडीए विरोधी दलों की सक्रियता से लग रहा है कि फिलहाल सभी दलों की स्थिति देखकर लग रहा है कि इनके नेता अँधेरे में धक्का देकर खुलने वाले दरवाजे को अपनी तरफ खींच कर खोलने का प्रयास कर रहे हैं.

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