उत्पीड़न का शिकार दलितों से इतनी हिंसा की उम्मीद नहीं :कौन है इस हिंसक विरोध प्रदर्शन का सूत्रधार
माननीय शीर्ष न्यायालय के एसटी एससी एक्ट में कुछ बदलाव के बाद लागू किये जाने के निर्णय को विरोध में इसे चैलेंज देते हुए भारत बंद का ऐलान किया गया था. देश के नौ राज्यों में हिंसक घटनाओं की खबरें विभिन्न चैनलों में देखने को मिलीं. सवाल उठ रहा है कि केंद्र की मोदी सरकार ने समय पर रिव्यू पिटीशन डाल दी होती तो देश के नौ राज्यों में इस तरह का हिंसक प्रदर्शन न होता. खबर नवीसों का कहना है की रिव्यू पिटीशन को दाखिल करने में केंद्र सरकार ने तेरह दिन लगा दिये. जबकि एनडीए सरकार में केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान का कहना है कि सरकार ने 8 दिन के अन्दर ही इसे दाखिल कर दिया था. जिस रफ़्तार से ये आन्दोलन हुआ इससे लगता है कि किसी राजनीतिक दल ने इसे हवा दी है. सोचिए सुप्रीम कोर्ट एसटी-एससी एक्ट पर ये निर्णय लेता है कि इसमें कुछ खामियां है इसलिए इसमें कुछ बदलाव किये जायेंगे. जिस तरह के बदलाव की बात हो रही है उसके अनुसार किसी भी व्यक्ति पर एससी-एसटी लगता है तो उसकी तुरंत गिरफ्तारी न की जाये. जांच के ही बाद एक्शन लिया जाए. अगर कोई व्यक्ति एससी-एसटी एक्ट के तहत शिकायत करता है तो जांच के बाद ही उसकी गिरफ़्तारी होगी. जिस तरह एससी-एसटी एक्ट के ख़त्म किये जाने के विरोध में हिंसक घटनाएँ हुईं इसे देखकर लगता नहीं है कि दलित उत्पीड़न के लिए क़ानून की लोगों को आवश्यकता है. इस एक्ट लाने के पीछे दलितों के उत्पीडन को रोकना था. आज जिस तरह की ख़बरें और तस्वीरें देखने को मिली इससे लगता नहीं है कि दलित वर्ग अपने उत्पीड़न के भय से इसे हटाने नहीं देना चाहता है. बसों में आग लगा देना, गाड़ियाँ फूंक देना, सड़कों पर आने -जाने वाले लोगों पर पथराव करके घायल कर देना. पुलिसकर्मियों को घायल कर देना आदि हिंसक वारदातों को अंजाम देने वाले इस एससी-एसटी को बदले जाने से उत्पीड़ित होने लगेंगे इसी भय के चलते कोई भी वर्ग इस तरह की हिंसक घटनाएँ कर सकता है तो इस एक्ट का क्या औचित्य है. इसे बदलने की बात पर निर्णय शीर्ष न्यायालय ने जो लिया सोच समझ कर ही लिया होगा. 16 अगस्त 1989 को ये दलित अधिनियम पारित किया गया था. इससे दबे कुचले लोगों को दबंगों के अत्याचारों से बचाया जा सके. लेकिन इस अधिनियम को इस्तेमाल अपनी दुश्मनों के लिए किया जाने लगा. इस एक्ट के गलत इस्तेमाल का शिकार एक सवर्ण जाति के बुजुर्ग को होना पड़ा. मज़े की बात यह है कि इनके खिलाफ दलित एक्ट लगवाने के लिए सवर्ण ने ही दलित को आगे बढ़ाया. एक दलित महिला जोकि रंजिशन उसको बांका मार के घायल कर दिया गया था. इस घटना को दलित उत्पीडन का रूप देकर सवर्ण ने सवर्ण के खिलाफ इस एक्ट का गलत इस्तेमाल किया. दुश्मनी थी प्रधानी का चुनाव. माननीय सुप्रीम कोर्ट को अब चाहिए कि जब इतना बवाल हो ही गया है तो अपने स्वविवेक से काम लेते हुए. जो बदलाव उचित समझती है करने चाहिए. इतने हिंसक प्रदर्शन को देखकर लगता नहीं है कि अब देश के दलितों को इस अधिनियम की ज़रुरत है. खुद ही फैसला कर सकते हो तो उत्पीडन काहे का या किसका. गरीब सब्जी वालों का क्या दोष कि उनकी दुकानों को तहस-नहस कर दिया गया. मासूम बालिका का पत्थर मरकर सर फोड़ दिया गया आन्दोलन के नाम पर आवागमन बाधित होने के कारण नवजात शिशु की साँसें उखड़ गयीं. ये सभी समाज का हिस्सा कभी नहीं हो सकता है. जिन राजनीतिकबाजों ने इसे हवा दी वही हिंसक प्रदर्शन के बाद जलती आग में वोटों की रोटी सेकने बाहर निकल आये. आज के भारत बंद में जिस तरह से हिंसक घटायें हुई जिसमें 9 लोगों की जानें गयी पुलिस समेत हजारों प्रदर्शनकार और राहगीर घायल हो ही चुके है तो अब शीर्ष न्यायालय को चाहिए सभी के हितों को देखते हुए इस एक्ट को खत्म करके कोई नया क़ानून बनाए ताकि इसका गलत इस्तेमाल न हो सके. रिव्यू पिटीशन दाखिल होने के पहले ही इतना आक्रामक हो जाना इसके पीछे राजनीतिक साजिश होने से इनकार नहीं किया जा सकता है. अकूत धन का मालिक राम रहीम भी अपने ख़रीदे लोगों से इतनी बड़े पैमाने पर हिंसा नहीं करवा पाया था, जितनी इस भारत बंद के दौरान हो गयी.









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