गुल्ली-डंडा खेलने से शुरू हुआ जीवन का सफ़र, पत्रकारिता पर आकर टिक गया...

सही कहा है किसी ने कि जो चीज़ आपको नपसंद हो उसे भी देखना पड़ जाता है कुछ ऐसा मेरे साथ हुआ.सबसे पहले अपने खेल जीवन के बारे में बता दूं. बचपन से सभी देसी और विदेशी खेलों को थोड़ा-थोड़ा खेल कर कीड़े मारे है या यूँ कहें की खेलकर मनोरंजन किया. किसी एक खेल को समर्पित भाव से नहीं अपनाया. बचपन में ही लम्बाई इतनी खिंच ली थी कि एडमिशन के लिए पास के स्कूल में पिताश्री ले गए तो प्रधानाचार्य महोदय ने सर के ऊपर से हाथ ले जाकर कान पकड़ने को कहा, सो कर लिया तो वो पिता जी से बोले बच्चे की उम्र साथ साल लिखनी पड़ेगी,कक्षा एक की जगह कक्षा दो में एडमीशन कराना पड़ेगा. नगर पालिका का स्कूल था.बहुत ज्यादा खेल के संसाधन नहीं थे. इसलिए स्कूल के सभी बच्चे हाफ टाइम में दो टीमें बनाकर कबड्डी खेलते थे. उस समय कबड्डी सबसे पापुलर गेम हुआ करता था. शाम को मोहल्ले के सभी बच्चे स्ट्रीट लाईट का भरपूर उपयोग करते हुए जोर आज़माइश करते थे. बचपन खेलते हुए ही गुजरा. छुट्टी वाले दिन एक दलित बस्ती थी के पास स्कूल का मैदान था. जहाँ पर मोहले के सभी बच्चे इकठ्ठा हो जाते थे. इंटों को एक के ऊपर एक रखकर स्टम्प बनते थे और दे-दना-दन  चालू हो जाते थे. छोटा मैदान होने के कारण गेंद कभी खो जाती थी तो क्रिकेट बंद कर गुल्ली-डंडा खेलने में जुट जाते थे. गुल्ली-डंडा भी विशेष तौर से जहाँ तक होता था गोल डंडे का बनाते थे. जब दिल इससे ऊब जाता था तो एक खाते-पीते परिवार का बच्चा अपने घर से फुटबाल ले आता था तो उसे ही लतियाने लगते थे. इस फ़ुटबाल का इतना ज्यादा उत्पीडन करते थे कि वो दम तोड़(फट) देता था.समय रफ़्तार के साथ निकलता गया तो क्रिकेट बहुत ज़्यादा पसंदीदा गेम बन गया. इस खेल के साजो-सामान को इकठ्ठा करने के लिए सभी बच्चे ने अपनी-अपनी तरफ कंट्रीब्यूशन (चंदा) किया और सभी सामन खरीद लिया. इतना नहीं की पैड चार खरीद लेते.दो ही खरीदने में सक्षम होने के कारण बल्लेबाज़ी करने के लिए उतारे दोनों खिलाड़ी एक पैर में पैड बांधते थे. काफी लम्बे समय तक ये गेम खेला इंटर तक खेलने के दौरान स्कूल की टीम में कप्तान ने अच्छा खिलाड़ी होने के बाद भी चयन नहीं किया तो उसी दिन से क्रिकेट को तिलांजलि दे दी.इसी दौरान शरीर सौष्ठव(वर्कआउट) के कीड़ों ने जन्म ले लिया. स्टेडियम जाने के दौरान बॉक्सिंग का तरफ रुझान हो गया. इसी दौरान एक हाई स्कूल में साथ पढ़े मित्र ने कहा पॉवरलिफ्टिंग शुरू करो. सुगठित शीर होने के कारण स्टेडियम के जिम में अभ्यास शुरू कर दिया. कुछ महीने बाद एक दोस्त ने कहा कि चलो भारोत्तोलन(वेटलिफ्टिंग) का अभ्यास शुरू करते हैं. इस गेम को बहुत अधिक सीरियसली लिया और ग्रेजुएशन के दौरान खेली जाने वाली इंटरवर्सिटी प्रतियोगिता में तीन बार हिस्सा लिया. स्नातक की डिग्री हाथ आई तो सभी गेम पीछे छूटते चले गए. दर्ज़नों बार सरकारी जॉब के लिए कम्पटीशन दिए लेकिन नौकरी न मिली तो, न मिली. स्पोर्ट्स कोटा और स्वतंत्रता सेनानी की आरक्षित सीटें होने के बाद भी नेताओं की मेहरबानी से जॉब नहीं मिल सकी. हाँ सब इंस्पेक्टर के लिए लिखित परीक्षा पास कर लेने के बाद भी साक्षात्कार में भ्रष्टाचार की वज़ह से चयन नहीं हो सका. इसी कम्पटीशन के दौर में एमए समाज शास्त्र कर के परास्नातक की डिग्री हासिल करने के साथ ही लिखने का शौक होने के कारण, पत्रकारिता का डिप्लोमा भी पास कर लिया. आरक्षण(इसके बारे में कम ही जानते थे) और भ्रष्टाचार, इसकी बहुत अच्छे से  जानकारी थी. इसी झंझावत के बीच लेखन का काम करते करते कब पत्रकर(हम मित्र बेरोजगार कहते हैं) बन गया पता न चला. किसी भी वर्ग को आरक्षण मिले चलता है, लेकिन इसके पीछे राजनीति करने वालों से बहुत अधिक परहेज है. इस आरक्षण की जानकारी न होती. अगर प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने आरक्षण के नाम पर रोटी सेकने के लिए देश में आग न लगवाई होती. इसी के बाद से नेताओं से बहुत अधिक एलर्जी हो चली थी. पत्रकारिता में एक दशक बीत जाने के बाद एक नेता बहुत ही पसंद आया तो वो है नरेंद्र मोदी.जिन्हें मुख्यमंत्री के रूप में देखते हुए आग उगलने वाली पत्रकारिता करने की प्रेरणा मिली. ईमानदारी स्वतंत्रता सेनानी पिता से विरासत में मिली थी.इसलिए देश की गंदगी साफ़ करने के लिए पीएम मोदी के साथ हो लिया हूँ. उन्हें इस बात की जानकारी भी नहीं हो सकेगी कि बहुत ज्यादा चहेते नेताओं में सिर्फ उनका नाम ही मेरी लिस्ट में है.


     

Comments