निकाह में नाच-गाने पर फतवा: काज़ी को कर लो राजी...तभी बाजा बाजी
दारुल उलूम देवबंद के शहर क़ाज़ी ने फतवा जारी किया है कि ख़ुशी के मौक़े निकाह में नाच-गाना नहीं होना चाहिए. दारुल उलूम के एक शहर काज़ी का कहना है कि अगर निकाह के दौरान नाच गाना होगा या होता है तो काज़ी निकाह नहीं पढ़वायेंगे. शहर क़ाज़ी मुफ़्ती अज़हर हुसैन का कहना है कि नाच-गाना इस्लाम के खिलाफ है. इसलिए हम ऐसे निकाह का बहिष्कार करेंगे. ऐसा फतवा देने से पहले क़ाज़ी को ये देखना और समझना चाहिए कि क्या ये उचित है. पुराने रिवाजों को ढोते रहने के लिए मुस्लिम युवाओं को मज़बूर करना, कहाँ तक न्याय संगत है. कुछ साल पहले जब अफगानिस्तान पर तालिबानियों का कब्जा था. तब वहां पर कट्टरपंथियों ने महिलाओं को सिर्फ आँखें दिखाई देने वाली पोशाकें पहनने के लिए कहा था. इसके खिलाफ जाने वाली या आधुनिक टाइप का बुरका या पोशाक पहनने वाली मुस्लिम महिलाओं पर हिंसा का प्रयोग किया गया था. आज सभी मुस्लिम युवक और युवतियां अपने परिवार के हालात सुधारने के लिए पढ़-लिख कर काबिल बनने की और अग्रसर हैं. इसी कड़ी में कश्मीर के अतहर आमिर खान ने देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा में दूसरा स्थान प्राप्त किया था. अतहर आमिर सरीखे बहुत से युवा है जो मल्टी नॅशनल कंपनियों में ऊँचे पदों पर बैठे हैं क्या वो इस आधुनिक युग में इस तरह की दकियानूसी बातों पर अमल कर पायेंगे. अगर ये युवक युवतियां अपने निकाह की पार्टी देते हैं तो कुछ तो दमा-चौकड़ी तो होनी ही है. अगर निकाह के बात आधुनिक युग में जी रहे मुस्लिम युवा वर्ग नाच गाने के साथ पार्टी देता है तो क्या निकाह मान्य होगा. कहते हैं समय के साथ चलने वाले लोग ही सफल होते हैं. मुस्लिम समाज में कुछ एक को छोड़कर अधिकतर त्यौहार ख़ुशी के नहीं होते हैं. शादी (निकाह) ही एक ऐसा अवसर होता है. जिसमें लोग ख़ुशी का इज़हार कर सकते हैं. वैसे भी मुस्लिम समाज में निकाह (शादी) के दौरान नाच-गाना जैसा होते न के बराबर देखा है. फ़तवे में यह भी कहा गया है कि अगर निकाह से पहले नाच गाना हो चुका है और ये बात क़ाज़ी को पता नहीं चलती है तो कोई बात नहीं है. ये बात कहना कि पता न चलने पर कोई बात नहीं कुछ अटपटी लगती है. नाच गाने पर अगर कोई आमादा है तो उसको क़ाज़ी को पटाना होगा.
वो बन्दा भी तो परिवार वाला होता है. उसे भी अपने परिवार का पेट पालना है. अत्याधिक अमीर मुस्लिमों में नाच-गाना होता होगा. लेकिन मिडिल क्लास मुस्लिमों में ऐसा कुछ होते नहीं देखा है. हिन्दू समाज में शादी ख़ुशी का मौक़ा होने के कारण गाना-बजाना होता है, लेकिन अब उस पर बढ़ते ध्वनि प्रदूषण के कारण माननीय न्यायालय का डंडा चल गया है कि रात 10 बजे के बाद गाना-बजाना नहीं होना चाहिए, साथ ही ये भी कहा गया है कि अगर आप कोई फंक्शन अपने घर में कर रहे हैं तो उसकी भी तेज़ आवाज परिसर से बाहर नहीं जानी चाहिए. शहर क़ाज़ी अगर इस फतवे में ये जोड़ देते कि इस्लाम में दिखावे को मान्यता नहीं दी गयी है. ये सब करना पैसे की बर्बादी है, इस पर खर्च होने वाले धन से ग़रीबों को खाना खिला दें तो सवाब का काम होगा. किसी फंक्शन में कान-फाडू गाने-बजाने में पूरी तरह से शहर क़ाज़ी की बातों से सहमत हूँ. हिन्दू धर्म में भी कहावत है कि मुंह दबा कर खाना चाहिए वरना ऊपर वाला नाराज़ होता है. कुछ ऐसा ही इस्लाम धर्म में भी कहा गया होगा.
वो बन्दा भी तो परिवार वाला होता है. उसे भी अपने परिवार का पेट पालना है. अत्याधिक अमीर मुस्लिमों में नाच-गाना होता होगा. लेकिन मिडिल क्लास मुस्लिमों में ऐसा कुछ होते नहीं देखा है. हिन्दू समाज में शादी ख़ुशी का मौक़ा होने के कारण गाना-बजाना होता है, लेकिन अब उस पर बढ़ते ध्वनि प्रदूषण के कारण माननीय न्यायालय का डंडा चल गया है कि रात 10 बजे के बाद गाना-बजाना नहीं होना चाहिए, साथ ही ये भी कहा गया है कि अगर आप कोई फंक्शन अपने घर में कर रहे हैं तो उसकी भी तेज़ आवाज परिसर से बाहर नहीं जानी चाहिए. शहर क़ाज़ी अगर इस फतवे में ये जोड़ देते कि इस्लाम में दिखावे को मान्यता नहीं दी गयी है. ये सब करना पैसे की बर्बादी है, इस पर खर्च होने वाले धन से ग़रीबों को खाना खिला दें तो सवाब का काम होगा. किसी फंक्शन में कान-फाडू गाने-बजाने में पूरी तरह से शहर क़ाज़ी की बातों से सहमत हूँ. हिन्दू धर्म में भी कहावत है कि मुंह दबा कर खाना चाहिए वरना ऊपर वाला नाराज़ होता है. कुछ ऐसा ही इस्लाम धर्म में भी कहा गया होगा.



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