स्वघोषित ईमानदार केजरीवाल के बाद, अब स्वघोषित प्रधानमंत्री बनने की राह पर राहुल

अभी भी कांग्रेस राहुल गाँधी के राजनीतिक जीवन की दशा और दिशा पर चिंतित नज़र नहीं आ रही है. राष्ट्रीय उपाध्यक्ष से अध्यक्ष बनने के इन पांच वर्षों में लगभग दो दर्ज़न चुनाव अपने नेतृत्व में हार चुके हैं. इसके बावजूद कांग्रेस में बचे-खुचे दिग्गज नेताओं को अभी भी जीत की लहर का इंतज़ार है. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की अध्यक्ष और माँ सोनिया गाँधी व्के स्वयं उपाध्यक्ष रहे ने साथ मिलकर 29 राज्यों वाले देश में कुल जमा 44  लोकसभा सीटें जीती थीं. इसके बाद से एक के बाद एक राज्यों से कांग्रेस गायब होती रही और सोनिया गाँधी और पुत्र राहुल गाँधी प्रचार करते रहे. गुजरात में कांग्रेस के रणनीतिकारों लग रहा था कि राहुल को जनेऊधारी ब्राह्मण बनाकर. हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवाती को साथ लेकर जीत हासिल की जा सकती है. इन्हें पूरे तौर पर भरोसा था कि था कि मोदी के इस बार मोदी विहीन गुजरात का सीएम न होने का भरपूर लाभ उठाया जा सकता है. इसी के चलते आनन-फानन में चुनाव से पहले राहुल को स्थापित नेता दिखाने के चक्कर में और अध्यक्ष बनने के बाद गुजरात फतह से कांग्रेस पार्टी व अन्य दलों के नेताओं समेत देश की जनता को सन्देश दिया जा सकता है कि राहुल गाँधी की नेतृत्व क्षमता में सुधार आने लगा है जिसका नतीजा गुजरात राज्य है. लेकिन इसके उलट परिणामों ने किये कराये पर पानी फेर दिया तो इस पांचवी हार को भी इस तरह से प्रचारित किया गया कि राहुल के नेतृत्व में मोदी के गृह राज्य में मोदी को 100 सीटों का आंकड़ा पर नहीं करने दिया. 99 विधानसभा सीटों पर ही रोक लिया. आदि फालतू की बातें ही बोलने में समय गंवाया. कांग्रेस को अभी भी लगता है कि अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष को प्रोपेगंडा से अरविन्द्र केजरीवाल की तरह स्थापित नेता बनाया जा सकता है. अब कांग्रेस की तबियत दिन बी दिन बिगड़ती ही जा रही है. अब हालत ये हो गयी है कि इंदिरा गाँधी परिवार की कांग्रेस को साथ लेकर चुनाव लड़ने को कोई भी पार्टी तैयार नहीं है. यह बात यूपी में दो सीटों पर हुए उप चुनाव से समझी जा सकती है. बसपा और सपा ने गठबंधन किया लेकिन कांग्रेस से कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं समझी. इसी  झुंझलाहट में कांग्रेस ने भी इन दोनों सीटों पर अपने प्रत्याशी इसलिए उतारे कि हो सकता है कि राष्ट्रीय पार्टी होने के कारण जनता का लोकसभा में दिया जाने वाला वोट उन्हें मिल जाएगा, लेकिन दोनों ही प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गयी. अगर कांग्रेस 2014 के लोकसभा चुनाव हारने के बाद आत्म मंथन कर पूरा फोकस केंद्र की सत्ता में पहुँचने पर रखती तो 2019 के लोकसभा चुनाव में कुछ और अधिक सीटों की बढ़त ले सकती थी. लेकिन पुत्र मोह में सोनिया गांधी के अन्दर देर से जागा इसी कारण राहुल गांधी को स्थापित नेता बनाने के चक्कर में अपने ख़ास नेताओं को तरजीह दी जाने लगी. जिन्होंने राहुल से हर वो बयान दिलवा लिया जिससे राहुल गाँधी प्रचारित स्थापित नेता बन सकते थे. अब राहुल गाँधी के कारण कांग्रेस के अन्दर विद्रोह की स्थिति तो है लेकिन कोई भी झंडा लेकर आगे नहीं बढ़ना चाह रहा है. उन्हें डर है कि अगर ये बात हाईकमान पता चल गयी तो बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है. जमीनी नेता न होने के कारण उनका अपना भविष्य चौपट हो जाएगा. हार दर हार की बौखलाहट इतनी बढ़ गयी है कि राहुल गाँधी स्वघोषित प्रधानमन्त्री पद के दावेदार बन गए हैं. कभी किसी पुजारी के माध्यम से कि पुजारी ने कहा है कि जा तू प्रधानमन्त्री बनने जा रहा है. फालतू बोलने की हद कर्नाटक चुनाव के दौरान तब पार कर ली और रैली के मंच से खुद ही कह डाला कि सबसे बड़ी पार्टी बनने पर वो प्रधानमन्त्री का पद संभालने के लिए तैयार हैं. जो नेता अपनी पार्टी को देश भर में चुनाव लड़ने के बाद लोकसभा की मात्र 44 सीटें ही जिताने में सक्षम रहा हो उसे अन्ना द्रमुक 37 और टीएमसी 34 जो अपने राज्य में लोकसभा की सीटें जीती हो वो कैसे राहुल का नेतृत्व स्वीकार कर सकती है. यह तय है कि इस बार के लोकसभा चुनाव कई राजनीतिक दलों के भविष्य पर पूर्ण विराम लगा सकते हैं. अगर सोनिया गाँधी और उनकी पार्टी के ख़ास नेताओं ने राहुल गाँधी को आगे कर चुनाव लड़ने की सोची तो पार्टी एक नहीं कई टुकड़े होने से कोई भी नहीं रोक पायेगा.

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