कर्नाटक में बीजेपी का बहुमत न सिद्ध कर पाना भविष्य में कांग्रेस को बहुत भारी पड़ेगा

सरकार गठन पर कांग्रेस और जेडीएस उठाये विवाद पर कर्नाटक में चल रहे नाटक का अंत 19 तारीख़ को हो जाना है. कर्नाटक में विधानसभा चुनाव में त्रिकोणीय लड़ाई में बीजेपी-104, कांग्रेस-78 और जेडीएस-38 जीती. इस तरह से कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार को यहाँ की जनता ने 122 सीटों वाली बहुमत की सरकार को इस बार बाहर का रास्ता दिखा दिया. जनादेश को स्वीकार न करते हुए कांग्रेस ने दिल्ली की तरह ही रायता फैलाते हुए अरविन्द केजारीवाल सरकार को समर्थन दे दिया था, लेकिन केजरीवाल सरकार मात्र 49 दिन सत्ता में रही रही और केजरीवाल ने विधानसभा भंग कर दी थी. जिसके बाद दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था. उसी तरह की स्थिति कर्नाटक में पैदा करते हुए कांग्रेस ने खिलाफ लड़े विरोधी दल जेडीएस को समर्थन देकर एक बार फिर से कुछ ऐसा ही करने पर आमादा है. कर्नाटक में दिल्ली जैसा न करते हुए यहाँ पर बीजेपी ने बहुमत न होने के बावजूद सरकार बनाने का दावा कर दिया. जैसा की राज्यपाल का संवैधानिक अधिकार है उसके तहत सबसे बड़े दल भारतीय जनता पार्टी को आमंत्रित किया और उसे बहुमत सिद्ध करने के लिए का. वहीँ दूसरी तरफ जनता के नकारे जाने के बावजूद कांग्रेस ने दिल्ली की तर्ज़ पर जेडीएस को समर्थन देने का ऐलान चुनाव के रुझान में किसी भी दल को बहुमत न मिलते देख कांग्रेस ने स्तरहीन राजनीति का परिचय देते हुए 38 सीटों वाले जेडीएस को सरकार बनाने के लिए आगे बढ़ा दिया. जनादेश को न मानते हुए पुरानी अलोकतांत्रिक राजनीति करते हुए रात को शीर्ष न्यायालय की चौखट पर दस्तक दे दी, ताकि बीजेपी नेता येदियुराप्पा शपथ शपथ न ले पायें. इसके पीछे कांग्रेस का कुतर्क था कि बीजेपी के पास बहुमत नहीं है अगर ऐसा हुआ तो विधायकों की खरीदफरोख्त की पूरी संभावना है. यह बात कांग्रेस किस मुंह से कह रही है कि उसके और जेडीएस के पास बहुमत है. जबकि इन दोनों दलों ने कर्नाटक में पांच साल प्रतिद्वंद्वी के रूप में काटे और विधानसभा चुनाव एक दूसरे के विरुद्ध लड़ा, परिणाम आते-आते एक दिन में ही दोनों दलों के दिल कैसे मिल गए. डेढ़ दर्ज़न से अधिक राज्यों से सफाया हो जाने से परेशान कांग्रेस इस तरह से क्या साबित करना चाहती है. क्या उसे लगता हो कि ऐसा करके वो अपने चुनाव हारू अध्यक्ष राहुल गाँधी को स्थापित नेता बना लेगी. कांग्रेस की ऐसी हरकतों से साफ हो गया है कि उसका एकमात्र लक्ष्य बन गया है कि किसी भी तरह से बीजेपी का विरोध करके राज्य में अपनी या अपने समर्थन से चलने वाली सरकार बना ली जाए. ऐसा सतही राजनीति का उदाहरण पेश करके कांग्रेस कौन से नैतिक मूल्यों को स्थापित करना चाहती है. हार-दर-हार से हताश और निराश कांग्रेस को अब कुछ नहीं सूझ रहा है, इसीलिए वो और अधिक गिरती जा रही है. कल अगर बीजेपी बहुमत न साबित कर पायी और कांग्रेस ने जेडीएस के कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बना भी लिया तो उसके पास भी मंत्री पद के लालची विधायकों के भाग न निकलने की कोई गारंटी नहीं है. सभी 114 विधायकों को मंत्री नहीं बनाया जा सकता है. कांग्रेस ने बीजेपी को रोकने और मोदी को पटखनी देने के चक्कर में कर्नाटक की सत्ता को अपने गले में फंसी हड्डी बना लिया है. जो कर्नाटक की सत्ता मिल जाने के बाद भी परेशान करती रहेगी. कांग्रेस को वो नहीं दिख रहा है जो उसे देखना चाहिए था. गुस्सा इन्सान को अविवेकी बना देता है कुछ ऐसा ही कांग्रेस के साथ भी हुआ है. उसे कर्नाटक की हार से समझ लेना था कि उसे जनता ने दूसरी बारी के लिए अस्वीकार कर दिया है. यही न समझ पाना कांग्रेस को भारी पड़ेगा. कर्नाटक में अगर कांग्रेस और जेडीएस की सरकार बन भी गयी तो भविष्य अतिमहत्वाकांक्षी 8 विधायकों के पाला बदलते ही सरकार गिरने की पूरी संभावनाएं हैं. कुछ ऐसा ही गेम दोनों दलों के साथ हो गया है. साथ आते ही बदनामी और सरकार बनने के बाद गिरने पर और अधिक बदनामी के लिए कांग्रेस को तैयार रहना चाहिए. कर्नाटक में बीजेपी को हटा कर सरकार बना लेना तो आसान होगा लेकिन उसे 2019 तक चला ले जाना मुश्किल है. अगर लोकसभा चुनाव तक सरकार नहीं चली तो इन चुनाव में अच्छे परिणाम की कांग्रेस उम्मीद नहीं करनी चाहिए.

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