कट्टरपंथियों को अब सुनना ही पड़ेगा, हिजाब के अन्दर से आती आवाजों को

अक्सर कुछ बातों को मज़ाक में ले लिया जाता है तो कोई घटना ऐसी हो जाती है कि सारी दुनिया की नज़र उस तरफ घूम जाती है. कुछ वर्षों पहले पाकिस्तान की मलाला युसुफजई ने मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा दिए जाने के समर्थन में ज़ोरदार आवाज उठायी थी. इसकी वज़ह से वो कट्टरपंथी मुस्लिमों के निशाने पर आ गयी थीं, इस के कारण तालिबानियों ने मलाला के सर पर गोली मर दी थी. डॉक्टरों के ज़बरदस्त प्रयास के बाद जान बच गयी थी. मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा के इस सराहनीय कार्य के लिए मलाला को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित  किया गया. इस्लामिक देश ईरान में साल 1979 के बाद से पुरुषों के फुटबॉल मैच समेत अन्य खेलों को देखने की अनुमति महिला फैंस को नहीं है। इसके पीछे कारण यह दिया जाता है कि महिलाओं को ‘खराब माहौल’ से बचाने के लिए ऐसा करना जरूरी है। इससे पहले इसी स्टेडियम में परसेपोलिस का एक मैच देखने पहुंची 35 महिलाओं को हिरासत में ले लिया गया था। इस घटना पर इसी कड़ी में कुछ युवतियां अपनी पसंदीदा टीम को प्रोत्साहित करने के लिए स्टेडियम में दाढ़ी-मूंछ लगा कर पहुँच गयी. किसी ने इनकी नकली दाढ़ी-मूंछ पिक्चर को सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया. अक्सर कुछ इस तरह की घटनाएं अब दुनिया के सामने आने लगी हैं. हाल ही में किसी इस्लामिक देश की नवयुवती ने विश्व सुंदरी के खिताब में शामिल होकर कट्टरपंथियों को नाराज कर दिया था. कहते हैं स्पोर्ट्स भी किसी देश के लिए अपनी पहचान बनाने का माध्यम है. इस्लामिक देश भी एशियन गेम्स और ऑलंपिक आदि खेल आयोजनों में  इस्लामिक देश भी कई दशकों से हिस्सा लेते चले आ रहे हैं. हिजाब से निकल कर अपनी पहचान बनाने को बेताब मुस्लिम महिलाएं भी हैं, लेकिन कड़ी बंदिशों के चलते ये अपनी पहचान बनाने से वंचित रह जाती हैं. हाल ही में संपन्न रियो ओलंपिक में 'बीच वालीबाल' में टूपीस कास्ट्यूम में विदेशी महिलाओं से हिजाब में मैच खेलते देखना रोमांचक के साथ हिजाब में खेलने को मजबूर इन स्पोर्ट्स विमेन के मन में चैम्पियन बनने की बलवती होती इच्छाओं को जतलाता है. बहुत सटीक बात कही गयी है कि इच्छाओं को जितना दबाया जाता है वो उतना ही बलवती होती जाती हैं. हिन्दू धर्म में बड़े-बुजुर्गों को सम्मान देने के लिए घर की बहू घूँघट(हिज़ाब) में रहती थीं. समय के साथ पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के कारण अब हिज़ाब(घूँघट) गाँवों तक सीमित गया है. इस बड़े परिवर्तन के पीछे घर की जिम्मेदारियां बेटे निभाते, लेकिन परिवार में इनके न होने के कारण आया और बेटी को घर से निकलना पड़ा. इस्लामिक देशों में हिजाब से निकलकर महिलाओं का इस तरह से बंदिशें तोड़कर आना साफ़ संकेत दे रहा है कि कट्टरपंथियों को अपने दकियानूसी चोले को त्याग कर इस बात पर सोचना चाहिए कि अब हिजाब के अन्दर की इच्छाओं को समझने का प्रयास करें. मर्यादित व्यवहार और हिजाब या घूँघट तो अलग बातें है. हिजाब या घूँघट मर्यादित व्यवहार करना नहीं सिखा सकता है. इसे घर  की बड़ी-बुजुर्ग महिलायें ही समझा सकती हैं. कट्टरपंथियों को चाहिए कि  हिजाब -वर्सेज़-टू-पीस कास्ट्यूम के 'बीच बालीबाल' मैच से सबक लें, हिजाब के अंदर भी अब अपनी पहचान  बनाने की इच्छाएं ज्वालामुखी की  तरह ही उबल रहीं हैं. इसे सही दिशा देकर रोका जा सकता है. अगर कुछ इसके लिए न सोचा गया तो कभी भी जब ये ज्वालामुखी फट जाएगा तो न चाहते हुए भी आये इस परिवर्तन को अपनाना कट्टरपंथियों की मज़बूरी बन जाएगा.


Comments