
बीते दिनों कर्नाटक में सरकार गठन के लिए एच डी कुमारस्वामी का शपथ ग्रहण समारोह था. इसी के साथ लगे हाथ कांग्रेस व अन्य दलों ने बैंक बढ़ाने और विपक्षी दलों में एकजुटता दिखाकर जनता को ये सन्देश देना कि सभी दल मिलकर मोदी को 2019 में उखाड़ फेंकेंगे. ऐसा ही कुछ उस दिन देखने को मिला कि बहुत सारे प्रमुख क्षेत्रीय दलों के नेता शपथ ग्रहण समारोह में दिखाई दिये. एकजुटता का आलम ये था कि सभी नेता एक साथ कैमरे के फ्रेम में नहीं आ रहे थे. यह बात एक न्यूज़ चैनल भी कह रहा था. इस मंच पर सोनिया गाँधी और राहुल को तो होना ही होना था, इनके साथ ही मायावती, अखिलेश यादव, चन्द्र बाबू नायडू, ममता बनर्जी सीताराम येचुरी, शरद पवार, तेजस्वी सिंह, अरविन्द केजरीवाल(दिखे नहीं), चन्द्र शेखर आदि गैरएनडीए के ज्यादातर दल दिखाई दिए. थोड़ा पीछे चलते हैं. इस बार कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में जाति और धर्म का बोलबाला रहा. जिसके चलते कांग्रेस और जेडीएस ने मुसलमानों और लिंगायत को पटाने के लिए लोकलुभावन वादे किये. जब परिणाम आये तो बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनीं को 104 (बहुमत से 8 कम) सत्तारूढ़ कांग्रेस को 78(बहुमत से 44 कम) और जेडीएस को 37 (बहुमत से 85 सीटें कम) मिलीं. जातीय समीकरणों के जोड़-तोड़ से सरकार बनाने में किसी भी दल को सफलता नहीं मिली तो बीजेपी को बहुमत से 8 सीटें कम मिलने का नुकसान इसलिए हुआ कि उसने समाज के किसी वर्ग विशेष का वोट पाने के लिए कोई ऑफर नहीं दिया था. इसी का नुकसान बीजेपी को ये हुआ कि जेडीएस और कांग्रेस किये वादे के मुताबिक़ एक साथ आ सकते थे. ऐसा ही कुछ हुआ कांग्रेस ने सरकार बनाने के लिए जेडीएस को फराख-दिली से समर्थन दे दिया. शर्त ये रही कि मुख्यमंत्री जेडीएस का तो उपमुख्यमंत्री(1 या 2 होंगे) कांग्रेस का होगा. बीजेपी को रोकने और राहुल की गाँधी को स्थापित कर अपनी बदतर हो चली हालत को सुधारने के साथ मुस्लिम वोटों को अपने पाले में रोके रहने मज़बूरी थी. इसके चलते कांग्रेस को 37 सीटों वाले जेडीएस को मुख्यमंत्री पद देना पद गया. अपने मुस्लिम वोटों के लिए कांग्रेस ने मज़बूरी में जो किया उसका उसे नफा 2019 होगा या नहीं ये तो समय बतायेगा.लेकिन शपथ ग्रहण समारोह में वो सभी विरोधी दल बड़े उत्साह से जुटे जिन्हें अपने राज्य में सत्ता पाने के लिए वोटों के जोड़-गाँठ के लिए मुस्लिम वोटों की दरकर रहती है. मुस्लिम वोटों के बिना इन दलों का कोई अस्तित्व नहीं है. शपथ ग्रहण के इस ख़ुशी के मौके को एकजुटता के रूप में दिखाने के लिए सभी गैर एनडीए दल के नेता जुटे थे यूपी से मायावती गयी थीं उनके साथ एस सी मिश्र ने शिरकत की तो वहीँ अखिलेश यादव ने राजेन्द्र चौधरी के साथ मंच की शोभा बढ़ाई. मन में एक सवाल उठते ही सभी न्यूज़ चैनलों को एक के बाद एक पलट मारा लेकिन जो देखना चाहता था वो कहीं भी नहीं दिखा. शपथ ग्रहण समारोह से पहले कोई चैनल खबर चला रहा था कि कर्नाटक में सरकार गठन में कांग्रेस और जेडीएस में 2 उप्मुख्य्मंत्रियों को लेकर पेंच फंस रहा है. कांग्रेस चाहती है कि उसे उपमुख्यमंत्री के दो पद चाहिए. एक हिन्दू और एक मुस्लिम को वो उपमुख्यमंत्री बनाना चाहती है. इस खबर ने ही कान खड़े किये थे कि कांग्रेस ऐसा शायद 2019 के लोकसभा चुनाव जीतने के लिए चाहती है. ऐसा ही सभी राज्यों के चुनाव में होता है कि बैर भाजपाई दल मुस्लिम वोटों को अपनी तरफ खींचने के लिए बीजेपी का डर दिखा कर चुनाव में बाजी मार ले जाने के लिए करते हैं. इस का प्रमाण है कैराना का लोकसभा उपचुनाव जहां पर बीजेपी नेता हुकुम सिंह के देहांत से खाली हुई सीट पर उनकी पुत्री मृगांका सिंह को टिकट मिला है तो वहीँ एकजुट हुए दलों आरएलडी+समाजवादी पार्टी और बसपा (बिना प्रचार के बाहर रहकर) ने तबस्सुम को अपना प्रत्याशी घोषित किया है. 2019 के लोकसभा चुनाव के तहत मुस्लिमों को यह सन्देश देना है कि एक साथ वोट करो. ताकि बीजेपी को पछाड़ दिया जाए. अब पर्दे के पीछे के कडुवे सच पर नज़र डालें. सभी गैरभाजपाई दल कई दशकों से मुस्लिमों को बीजेपी का डर दिखा दिखाकर सत्ता पर काबिज होते रहे हैं. मुस्लिमों को वोट बैंक बनाये रखने के तहत कुछ सांसदों (लोकसभा-राज्यसभा) और कुछ विधायकों का लालीपॉप दिखाते चले आ रहे हैं. मुस्लिम समाज के लोग बीजेपी विरोध में अंधे होकर अपना ही अस्तित्व मिटाने पर आमादा रहते है. ये लोग कभी भी ये नहीं सोचते हैं कि मोदी ने गुजरात में ऐसा माहौल नहीं रखा था कि हिन्दू-मुसलमान एक दूसरे को मारने के लिए तलवार लेकर चलते हो. गोधरा कांड के बाद हुए इकलौते दंगे के सिवाए कुछ भी साम्प्रदायिक नहीं दिखता है, जैसी कि नरेंद्र मोदी की छवि को विरोधी दल दिखाते रहे हैं. आज मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बन जाने के चार साल बाद भी आज मुस्लिम समाज दंगों की त्रासदी से कोसों दूर है. इन चार वर्षों में देश में कभी कुछ ऐसा नज़र नहीं आया जोकि मुस्लिमों को आघात पहुँचाने वाला रहा हो. मुस्लिम समाज में कम पढ़े-लिखे लोगों की संख्या अधिक होने के कारण इनके झंडाबरदार मौलानाओं को थोड़ा सा लालच देकर एक सेट मांइड के तहत पीएम मोदी और बीजेपी को राक्षस की भूमिका में खड़ा कर दिया है. अगर देश के सभी गैरभाजपाई दल सचमच में मुस्लिम वोट बैंक नहीं मानते हैं, मुस्लिमों का भला चाहते हैं तो कर्नाटक के शपथ ग्रहण समारोह में लोकसभा के लिए एक मंच एकजुट का नाटक करने वाले इन दलों के पास कोई बड़ा मुस्लिम नेता नहीं था जिसे लेकर मंच साझा करते. जितने भी दल मंच पर थे सब के सब बीजेपी को मुस्लिम विरोधी, तो अपने को सेक्युलर तो कहते हुए नहीं थकते हैं. लेकिन इनकी पार्टी में एक अदद मुस्लिम नेता नहीं है जिसे लोगों के सामने खड़ा कर सकें. इसी बात को न्यूज़ के दौरान देखा कि मायावती आयीं एससी मिश्रा के साथ अखिलेश आये तो राजेन्द्र चौधरी के साथ शरद पवार भी दिखे लेकिन उनके साथ भी कोई मुस्लिम नेता नहीं था जो आम मुस्लिमों के लिए इनके दल में आवाज़ बुलंद कर सके. आज मुसलमान खुद ही देश की मुख्यधारा से कट इसलिए गया है किउसे मोदी को ख़त्म करना है. मुस्लिमों को ये नहीं समझ में आ रहा है कि जो राजनीतिक दल इनके खैरख्वाह हैं वही इनका शोषण कर रहे हैं.
ये शोषण नहीं है तो क्या है. कई दशकों पुराने राजनीतिक दल राज्यों में सत्ता सुख भोग रहे हैं लेकिन कभी किसी मुस्लिम को अपने दल में उच्च पद दे रखा हो ऐसा नहीं दिखा. आरजेडी के कुछ महीनों के मंत्री तेजस्वी के साथ भी कोई मुस्लिम लीडर नहीं था जो मंच को साझा करता. इन मुस्लिमों को कब समझ में आएगा कि ये सिर्फ चुनाव में इस्तेमाल की चीज बनकर रह गए हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल आम आदमी के कुनबे के साथ गोल टोपी पहन कर रोजा अफ्तार पार्टी में तो जाते हैं लेकिन उप मुख्यमंत्री अपने साथी मनीष सिसौदिया को ही बनाते हैं. मुस्लिमों की अब आँखें न खुली तो कभी भी नहीं खुलेंगी. आँखें खोलो और देखो आज भी मुस्लिम झंडाबरदार दल इन्हें इस्तेमाल की चीज समझते हैं, जिसका कि पांच साल में एक बार होता है. अब न संभले तो ताउम्र लड़खड़ाते रह जाओगे. मोदी और बीजेपी विरोध के चक्कर में बद से बदतर हालत में पहुँच जाओगे.
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