नेताओं की ऊँगली पकड़ कर नहीं,पकड़ा के चलना होगा
किसी जान बचाने से बड़ा नेक काम कोई नहीं है. कुछ दिनों से इन खबरों ने बहुत ही सुखद अनुभूति करायी है. खबर के मुताबिक़ किसी बीमार को ब्लड की ज़रुरत थी. इसकी जानकारी एक मुस्लिम युवक को हुई तो उसने अपना ब्लड रमजान के महीने में रोजे रखने के बावजूद रोजा तोड़ कर दिया. बहुत सुखद अनुभूति हुई कि मुस्लिम समाज किसी भी सूरत में देश की मुख्यधारा से जुड़कर अपना योगदान दे रहा है. मुस्लिम समाज को चाहिए कि हर हर क्षेत्र में कुछ ऐसे ही कार्य करते हुए अल्पसंख्यक होते हुए भी सब के बीच अपनी ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज कराएं. ऐसा नहीं है कि मुस्लिम धर्मावलम्बी सामाजिक कार्यों से नहीं जुड़े होते हैं. सभी अपने सामर्थ्य के अनुरूप अपनी भूमिका निभाते रहे हैं. लेकिन आज़ादी के बाद से अब जो माहौल बना हुआ है, इसके चलते, इन्हें वोट बैंक बना लिया गया है. जब भी कोई चुनाव नज़दीक आता ही कुछ पार्टी विशेष के नेता इनके इर्द-गिर्द घूमने लगते हैं. या यूँ कहे कि मुस्लिम समाज में साक्षरता कम होने के करण, कुछ इन्हीं के समाज के चालाक लोगों ने हमदर्दी के नाम पर अपने कब्ज़े में कर रखा है. इनके वोट के ठेकेदार बने हुए लोग जब भी कोई राजनीतिक दल इनकी मुट्ठी गर्म कर देता है तो ये धर्म के ठेकेदार इन कम पढ़े-लिखे लोगों को दूसरे धर्म के लोगों का भय दिखाकर बरगला ले जाता है. अच्छी खासी संख्या में मेरे भी मुस्लिम मित्र है. जिनके विचार अलग अलग हैं. लेकिन कभी भी ये नहीं हुआ कि सब के बीच राजनीतिक दलों इ नेताओं की कोई बीमारी बीच में आई हो कई दशक बीत जाने के बाद भी जैसा पहले था. वैसा ही खुशगवार माहौल आज भी कायम है. किसी भी बात पर कभी मतभेद नहीं रहा है. लेकिन बातचीत के राजनीति और नेताओं के आते ही मतभेद हो पनपने लगता है. ऐसा क्यों होता है, ये बात कई दशकों बात बहुत सोचने पर समझ में आयी. सभी धर्मों में कुछ प्रतिशत लोगों में कट्टरपंथी सोच होना कोई बड़ी बात नहीं है. जोकि हानिकारक नहीं होते हैं. ये तब नुकसान पहुंचाने लगते हैं जब इन पर कट्टर पंथी सोच के लोग हावी हो जाते हैं. जोकि नेताओं के इशारे पर कम करते हैं. बस यहीं से सब गड़बड़ हो जाती है. लोक्तान्तिक प्रणाली में वर्ग विशेष का झंडाबरदार कुछ स्वार्थ के लिए इनके वोटों को बेच खाता है. कर्नाटक के चुनाव एक मिसाल हैं मुस्लिम समाज के वोटों की बर्बादी के. कांग्रेस जिसे कि जनादेश ने नकार देने का मन बनाते हुए मतदान किया था. उसे 122 सीटों से 78 पर ले आई ने तिकडमबाज़ी कर जेडीएस के साथ बेमेल गठबंधन करके फिर से सत्ता की चाभी अपने हाथ में लपक ली. लेकिन मुस्लिम जोकि इनके समाज के झंडाबरदारों की एक आवाज़ पर कही गयी पार्टी को वोट डालता उसे कुछ हाथ नहीं लगा. जिसका गवाह कर्नाटक का शपथ ग्रहण समारोह बना. सभी राज्यों के नेताओं को इस समारोह में शामिल होने का आमंत्रण मिला था. यहाँ भी राजनीतिक एकजुटता दिखाने के लिए वर्तमान और पूर्व मुख्यमंत्री सब अपने ख़ास लोगों के साथ पहुंचे थे. लेकिन जो इन्हें वोट देकर सत्ता पर बैठाता है. इस कुनबे का कोई भी व्यक्ति मंच पर नहीं दिखा. क्यों नहीं दिखा क्योंकि वो सिर्फ वोट बैंक है. जो मौके पर काम आता है, वरना बाकी समय साइलेंट फीचर में पडा रहता है. इसी के कारण आज भी मुस्लिम समाज वोट देने के बाद भी इनकी उपेक्षा शिकार है. अगर मुस्लिम समाज चाहता है कि उसे उपेक्षित न किया जाए तो उन्हें बिहार के गोपाल गंज का जावेद आलम बनना पड़ेगा. जावेद जैसी सोच के साथ आगे बढना पड़ेगा. तभी अपनी पहचान हो सकेगी. वरना कर्नाटक के शपथ ग्रहण समारोह जैसे मंच पर इनके वोट से मुख्यमंत्री तो बन जायेंगे लेकिन साथ में खड़ा करने से परहेज करेंगे. ऐसा हो भी क्यों न. जब सबके वोटों के बदले में मुस्लिमों के वोट एक व्यक्ति इन्हें अपने स्वार्थ सिद्धि के साथ पहुंचाता है तो, इन्हें क्यों कुछ अलग से मिलेगा.



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