भगवान बचाये आम लोगों को प्रायोजित आंदोलनों से पैदा होने वाले छुटभैय्ये नेताओं से
भूख हड़ताल शब्द सुनकर महात्मा गांधी की तस्वीर आँखों के सामने उभर आती है. आज़ादी के लिए गुलाम भारत के लोग ब्रिटिश शासन के विरोध स्वरुप ऐसा ही करते थे. गुलाम भारत को आज़ाद कराने के लिए उस समय के नेता आम लोग अंग्रेजी हुकूमत का विरोध करने के लिए भूख हड़ताल और अहिंसक धरना-प्रदर्शन का सहारा लेते थे. समाज में अलग-अलग विचारधारा के लोग होते हैं इसीलिए उस समय भी दो दल हुआ करते थे, नरमपंथी और गरमपंथी. स्वतंत्रता कैसे मिली ये इतिहास के पन्ने बन चुके हैं. लेकिन आज़ादी के लिए धरना-प्रदर्शन और भूख हड़ताल आज़ाद भारत की पहचान बन चुकी है. आज लोग भूख हड़ताल और धरना-प्रदर्शन करके सरकार से अपनी मांगे मनवाने के लिए करते हैं. भूख हड़ताल आज के समय में कम देखने को मिलती है, लेकिन धरना-प्रदर्शन अत्यधिक देखे जा सकते हैं. लगभग दो दशक पहले लोग अपनी मांगे मनवाने के लिए विधान भवनों के समक्ष भूख हड़ताल करते थे. मिट्टी की सुराही/घड़ा और एक चादर/कम्बल आदि के साथ सरकार से अपनी मांगें मनवाने के लिए अकेले ही डट जाते थे. समय का चक्र घूमता गया और धरना-प्रदर्शन और भूख हड़ताल में भी बदलाव आ गया. आज की भूख हड़ताल एक दिन के लिए ही होती है, लेकिन बहुत से लोगों जब तक इकठ्ठा न कर लिया जाए तब तक लोगों को लगता है कि आन्दोलन में वज़न नहीं आएगा. अपने पिता से सुना था कि ब्रिटिश शासन में आमजन अत्याचार के खिलाफ और आज़ादी के लिए आन्दोलन करते थे तो गोरे लोग और उनको इसमें सहयोग देने वाले भारत के कुछ प्रतिशत लोग आन्दोलनकारियों बेरहमी से पिटाई करते थे और जेल में डाल देते थे. अगर कोई बहुत ही आक्रामक रूप से विरोध करता था तो उसे तन्हाई में डाल दिया जाता था. तन्हाई वाला रूम उस समय आज़ादी मांगने वालों को प्रताड़ित करने के लिए 4 से 5 फुट लंबा-चौड़ी अँधेरी कोठरी जिसमें रौशनी का कोई इंतज़ाम नहीं हुआ करता था. उसमें स्वतंत्रता के मतवालों को कई हफ़्ते के लिए डाल दिया जाता था. इस्सेअधिक सज़ा देनी हुई तो आज़ादी के लिए लड़ रहे लोगों को करेंट के नंगे तार से शरीर को यातनाएं दी जाती थीं. ये सज़ा गरमपंथियों को ज़्यादा दी जाती थी. और भी बहुत सी रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाओं को बताते थे.इन बातों का ज़िक्र इसलिए किया क्योंकि आज कल जिस तरह से किसान आन्दोलन, आरक्षण के लिए जातिय आन्दोलन, आदि जिस तरह से प्रायोजित किये जाते हैं ऐसे आन्दोलन अंग्रेजों के समय करने की लोगों में हिम्मत नहीं होती थी. ऐसा नहीं है कि उस समय के लोग डरपोक होते थे, उस समय लोगों को अच्छे से मालूम था कि ये सब विदेशी हैं, इन्हें किसी न किसी दिन हमारे देश को छोड़कर जाना. यही बातें आज़ादी के लिए लड़ रहे लोगों में उत्साह भर भरने के साथ देश भक्ति का पाठ भी पढ़ाती थी.वर्तमान समय में आन्दोलन करने वाले लोग हमेशा उग्र इसलिए हो जाते हैं कि आज़ाद भारत में हैं. ब्रिटिश शासकों की तरह बेरहमी से पिटाई नहीं होगी क्योंकि हम लोकतंत्र में वोट डालते हैं जिसे चाहेंगे उसे सत्ता से हटा सकते हैं. अब ये वर्तमान में सत्ताधारियों के गले की हड्डी बन चुका है. कश्मीर को ही देखे सस्ता आनाज मुहैय्या होने के बाद भी वहां पर पत्थरबाजी होती रहती है. आन्दोलन तो अब नेतागीरी चमकाने के लिए होने लगे हैं. एक आन्दोलन हुआ था दिल्ली में तो उसमें से एक नेता पैदा हुआ अरविन्द केजरीवाल, गुजरत में आन्दोलन से हार्दिक पटेल पैदा हो गया, दलित आन्दोलन से जिग्नेश मेवाती, किसान आन्दोलन से आज तक नेता पैदा हो चले आ रहे हैं. अन्य बहुत से नेता बनाऊ आन्दोलन अक्सर होते रहते हैं. ये बात चिंतन का विषय है कि ऐसा क्यों होता है कि जब भी देश में गैरकांग्रेसी सरकारें होती हैं तभी इस तरह के आन्दोलन की संख्या में बढ़ोतरी हो जाती हैं ?. अन्ना आन्दोलन से पैदा हुए केजरीवाल की हालत ये हो गयी है कि वो मुख्यमंत्री बनने के बाद भी आन्दोलन या धरना-प्रदर्शन करके ही बड़ा नेता बनने की जुगत में रहते हैं. केजरीवाल को लोग, दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में कम तो धरना-प्रदर्शन मैन के रूप में लोगों के बीच अधिक पहचानते हैं. दिल्ली की जिस जनता इन्हें सत्ता इसलिए सौंपी कि लोगों का भला करेंगे, लेकिन इसके उलट आज ये महाशय 8 दिन से खुद ही धरने पर बैठ गए हैं. इनका कहना है कि मुझे अधिकारी सहयोग नहीं कर रहे हैं. झूठ बोलने में बड़े-बड़ों के कान काट लेने वाले अरविन्द केजरीवाल ने आईआरएस की जॉब इसलिए छोड़ी थी कि नेता अधिकारियों को काम नहीं करने देते हैं. अब जबकि ये नेता से मुख्यमंत्री बन गए हैं तो अब कह रहे हैं कि अधिकारी काम नहीं करने दे रहे हैं. अरे आन्दोलन करने वालों में सर्वोच्च केजरीवाल आपको किस करवट चैन आएगा और आप जनता की भलाई के काम करेंगे. अगर कहीं गलती से पीएम बन गए होते तो ट्रम्प, पुतिन, किम जोंग, शी जिंग, आदि सभी देशों पर आरोप मढ़ देते कि ये लोग काम नहीं करने दे रहे हैं. अगर ऐसा बोल दिया होता तो अब तक तीसरा विश्व युद्ध ख़त्म होने वाला होता. एक आन्दोलनकारी ऐसा भी है जो तिकड़मबाज़ी के आन्दोलनों पर भरोसा करता है. गुड वर्क से कोई लेना देना नहीं है. अब खुद ही पाठक चिंतन करें कि आज़ादी के पहले जो आन्दोलन होते थे और जो अब होते हैं, उनमें समय के साथ आन्दोलनों और नेताओं में कितना अंतर आ चुका है. नेता उगाऊ आंदोलनों के विरुद्ध देश के आम लोगों को एकजुट होकर इनसे निपटना पडेगा, वरना देश और देश के सभी राज्यों पर केजरीवाल जैसे पसड़बाज़ नेता का कब्जा हो गया तो देश का सत्यानाश होने से कोई भी नहीं बचा पायेगा.







Comments
Post a Comment