सरकार से समर्थन वापस : अब किसी को भी डिस्काउंट देने के मूड में नहीं है मोदी सरकार
अगर किसी राज्य में गठबंधन की सरकार है तो दोनों दलों के नेताओं के बीच किसी भी मुद्दे पर आपसी सहमति ज़रूरी होती है. थोड़ा भी आपसी सहमति से हटकर फैसला लिया गया तो सरकार चलना मुश्किल हो जाता है. इसी का नतीजा है कि साढ़े तीन साल पुरानी पीडीपी-बीजेपी सरकार गिर गयी.महबूबा सरकार के गिरने के पीछे के कारण को देखा जाए तो मुख्यमंत्री महबूबा का बीजेपी पर दबाव बनाकर अपनी बातें मनवाने की ज़िद रही. पत्थरबाजों पर हमेशा ही लचीला रुख अपनाए रहने वाली मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने अपने सहयोगी दल बीजेपी को जोकि केंद्र की सत्ता की बागडोर संभाले है के निर्णयों का विरोध करती रही हैं. हाल ही में कठुआ रेप के बाद हत्याकांड में अपने सहयोगी दल बीजेपी के नेताओं की इस मामले में सीबीआई जांच की मांग को दरकिनार कर दिया. इसी के चलते गठबंधन में खटास पैदा होने लगी थी. देखा जाए तो बीजेपी ने हमेशा ही जम्मू-कश्मीर की महबूबा सरकार को कोई भिओ निर्णय लेने की पूरी आज़ादी दे रखी थी. इसी का परिणाम यह रहा कि मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने कश्मीर पर केंद्र की मोदी सरकार के फैसलों में भी टांग अड़ानी शुरू कर दी. पैलेट गन के इस्तेमाल को भी अन्य सेक्युलर दलों की तरह ही गलत ठहराने लगीं. कठुआ के बाद महबूबा की ने रमजान में एक तरफा सीज फायर के लिए सहयोगी दल बीजेपी को मना लिया था. लेकिन पत्थरबाजों ने अलगाववाद के एजेंडे को लेकर पत्थरबाज़ी का कार्यक्रम चलता रहा. इसी कड़ी में जब रमजान का महीना शुरू हुआ तो सीजफायर की पीडीपी मुखिया ने बढ़-चढ़ कर वकालत की. इसका लाभ उठाते हुए पाकिस्तान पोषित आतंकवादियों-अलगाववादियों और इनके गुर्गों ने जमकर खून-खराबा किया, लेकिन महबूबा मुफ़्ती ने इनके प्रति नरम रुख अपनाए रहीं. इसी का खामियाजा कश्मीर के उन अमन पसंद लोगों को भी भुगतना पड़ा, जोकि लोकतंत्र पर भरोसा करते हैं. अगर इन साढ़े तीन सालों पर नज़र फेरी जाये तो पीडीपी-बीजेपी गठबंधन ने आतंकवादियों की रीढ़ तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी. पहले जम्मू कश्मीर का ये हाल था कि आतंकवादी इसे अपनी ऐशगाह समझते हुए मौज करने अन्दर तक चले आते थे और मनमानी करते रहते थे. लेकिन महबूबा सरकार में ऐसा नहीं हो पाया, जिसके चलते आतंकवादी बार्डर पर ठोंक दिए गए. अन्दर घुसने की बात तो दूर की कौड़ी बन गयी थी. जी न्यूज़ की डिवेट में भी इसका असर देखने को मिला. गैर-भाजपाई सिर्फ इतना ही चिल्ला रहे थे कि पीडीपी को समर्थन देकर बीजेपी ने गलती की है, लेकिन मुस्लिम वोट बैंक के चक्कर में असल बात कहने की हिम्मत नहीं दिखाने से डर रहे थे. डिवेट में बैठे लोगों को दर था कि कोई भी बात राष्ट्रहित में बोलने का मतलब अपने आकाओं को नाराज़ करना है. इस डिवेट में गैर बाजपाइयों ने सब कुछ बोला, लेकिन रमजान के एक महीने के दौरान आतंकवादियों के द्वारा मारे गए एक पत्रकार और भारतोय सैनिकों के मारे जाने का विरोध न करना इनको सवालों के घेरे में खडा करता दिखाई दिया. ये इसलिए कि मरने वाले दोनों ही मुस्लिम थे, और मारने वाले भी पाकिस्तानी मुस्लिम आतंकवादी थे. किसी एक का समर्थन करने का मतलब था कि वो बीजेपी की कश्मीर में अपनाई गयी रणनीति का अपरोक्ष रूप से समर्थन कर रहे हैं. अगर बहुत गहराई से जम्मू- कश्मीर के हालातों पर नज़र डाली जाए तो बहुत कुछ बदलाव देखने को मिलेगा. सरकार गिरने की स्थिति में राष्ट्रीय दल कांग्रेस या नेशनल कांफ्रेंस ने सपोर्ट देने की कोशिश न करने से ही समझा जा सकता है. कश्मीर में सरकार गठन के पहले की स्थिति देखें, हजब बीजेपी से पीडीपी का गठबंधन पर बात नहीं बन पा रही थी, तब कांग्रेस और एन.सी. दोनों दल समर्थन देने के लिए उछलकूद मचाये हुए थे. आज जा बीजेपी ने पीडीपी से समर्थन वापस ले लिया तो इनमें से कोई भी दल आगे नहीं आ रहा है और उलटे पीडीपी को आतंकवादियों को पोषित करने वाला दल बताने में जुटे हुए हैं. इन बातों से साफ़ है कि कोई भी गैर्भाजपाई दल कश्मीर मुद्दे को सिर्फ राजनीति की भट्टी समझते हैं, इसमें रोटी सेंकने के लिए ही आगे आयेंगे, वरना दूरी बनाये रखना ही बेहतर समझते हैं. क्योंकि यहाँ की अवाम के भले या बुरे के लिए बोलनेका मतलब है राष्ट्रीय स्तर पर अपने आप पर सवालिया निशाँ लगा लेना, जिसका असर लोकसभा चुनाव में पड़ना ही है. देखा जाये बीजेपी ने साढ़े तीन साल तक पीडीपी को समर्थन और समर्थन वापसी से यह जतला दिया है कि वो हर हाल में कश्मीर से पाकिस्तान पोषित आतंकवाद और कुछ प्रतिशत लोगों के द्वारा संचालित अलगाववाद को खत्म करके ही दम लेगी. यह बात कुछ दिनों के बाद ही आर्मी के एक्शन से पता चल जायेगी.






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