सर्वाइव करने के लिए कांग्रेस को बीजेपी से पहले क्षेत्रीय दलों से दो-दो हाथ करना ज़रूरी
अब लगता है कि कांग्रेस को भी समझ में आ चुका है कि अपने नेतृत्व में केंद्र की सत्ता में आने के लिए छोटे क्षेत्रीय दलों के साथ की बनिस्बत इनका राज्यों तक ही वर्चस्व सीमित करना कांग्रेस के लिए ज़्यादा फायदे का सौदा होगा. क्योंकि पिछले कुछ समय में ऐसी घटनायें देखने सुनने में आई हैं उससे इस बात को बल मिल रहा है. राज्यों में जातिगत वर्गीय आधार पर वोट पाने के लिए किसान, पटेल, जाट, गुर्जर आदि आन्दोलन के सहारे राज्यों में जीत दर्ज करने का फार्मूला अपनाया था. लेकिन इसका नफ़ा राज्य सत्ता में आने में कारगर साबित नहीं हुआ था. यूपी में सपा के साथ गठजोड़ करके चुनाव जीतने का फार्मूला बुरी तरह फेल हो गया था, इसी के साथ सपा को बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ा था. त्रिपुरा में 25 साल से लाल झंडे की सरकार को उखान न पाने कांग्रेस में भी कांग्रेस विफल रही,इसके विपरीत मोदी ने अपने जादुई व्यक्तित्व के सहारे पूर्ण बहुमत वामपंथियों को उखाड़ फेंका. देखा जाए तो पूर्वोत्तर के राज्यों में क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस के मुकाबले बीजेपी को ज्यादा तरजीह दी. गुजरात में भी कांग्रेस ने जातिगत आधार पर चुनाव लड़ने के लिए पटेल आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले हार्दिक पटेल और दलितों और पिछड़ों का नेता कहे जाने वाले हार्दिक, जिग्नेश, आदि को साथ लेकर चुनाव लड़ा लेकिन सत्ता से वंचित रह जाना पड़ा और वहीं पीएम मोदी ने पांचवीं बार सत्ता को बीजेपी की झोली में डाल था. पश्चिम बंगाल में हुए निकाय चुनाव में बीजेपी ने जीत न दर्ज की हो लेकिन उसने अपनी मज़बूत उपस्थिति दर्ज कराते हुए कांग्रेस को एक झटका ज़रूर दे दिया. इस तरह से क्षेत्रीय दलों के हाथों बार बार पिटने वाली कांग्रेस को कर्नाटक चुनाव में बहुमत की सिद्धारमैया सरकार गंवानी पड़ी तो वहीँ बीजेपी ने अकेले ही विधानसभा चुनाव में 104 सीटें जीत कर बड़ा उलटफेर कर दिया जिसके चलते कांग्रेस को देश में घटते जनाधार के लिए सोचने पर मज़बूर होना पड़ा. कांग्रेस ने जोकि हमेशा ही नकारात्मक राजनीति के सहारे आगे बढती रही है. उसे अब अपना सतीत्व खतरे में लगने लगा है. इसी के चलते कांग्रेस ने एक बड़ा गेम प्लान करते हुए. आज़ादी के बाद से हमेशा साथ रहने वाले वोट बैंक मुस्लिमों को अपने पाले में पूरी तरह से करने में जुट गयी है. क्षेत्रीय दलों को बीजेपी के खिलाफ उकसाने में पूरी तरह से सफल होती दिख रही है. कर्नाटक में जेडीएस के कर्ता-धर्ता पिता-पुत्र देवेगौडा को 38 सीटें जीतने के बाद भी गठबंधन करके पुत्र कुमारस्वामी को फराखदिली दिखाते हुए मुख्यमंत्री बनाने के साथ मुस्लिम उपमुख्यमंत्री की वकालत भी कर दी थी. लेकिन जी परमेश्वर के उपमुख्यमंत्री बनाने पर सहमति बन गयी. रणनीति के तहत जन कांग्रेस के जनेऊधारी राहुल गांधी हिन्दुओं को स्वीकार नहीं हुए तो मुस्लिम वोट बैंक को फिर से बढाने के लिए ही कर्नाटक में दबी जुबान से मुस्लिम उपमुख्यमंत्री की बात करके ये सन्देश देना चाहा कि कांग्रेस आज भी मुस्लिमों के साथ है. इसी मुस्लिम वोट बैंक फार्मूले के तहत कांग्रेस ने हाल ही में अपने अध्यक्ष से अपरोक्ष रूप से ये कहलवाया कि कांग्रेस मुस्लिमों की पार्टी है. इन्हीं सब घटनाओं से लगता है कि कांग्रेस अब पूरे तौर पर मुस्लिम वोट बैंक को अपने पाले में खींचने का मन बना चुकी है, इसके लिए मुस्लिमों के सभी बड़े-छोटे मुस्लिम धर्म के ठेकेदारों की अन्दर के खाने में पूरी तरह से सहमति मिल चुकी ना पड़ती है. अगर ऐसा हो जाता है तो सबसे ज्यादा सीटों वाले उत्तर-प्रदेश में अन्य राज्ज्यों के मुकाबले जहाँ सबसे अधिक मुस्लिम मतदाता हैं जो कांग्रेस के साथ खड़ा हो जाएगा तो क्षेत्रीय दल समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी आदि दल मिटने की कगार पर पहुँच जायेंगे. वहीं बीजेपी को मुस्लिम वोटों के कांग्रेस के साथ जाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. लेकिन सभी क्षेत्रीय दलों को लोकसभा ही नहीं, विधानसभा चुनाव भी जीतना क्या अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लाले पड़ जायेंगे. कांग्रेस को अब ये बात अच्छे से समझ में आ चुकी है कि जब तक मोदी-शाह की जोड़ी बीजेपी का मुखड़ा रहेंगे, तब तक जीत दर्ज करना असम्भ कार्य है. इसके तहत ही बहुत ही सूझ बूझ के साथ कांग्रेस इन चार वर्षों में राज्यों इ चुनाव लड़ने की रणनीति में बार बार बदलाव करती रही है. इस बात को बीजेपी अच्छे से समझ रही है, इसमें उसका नफा ही है. लेकिन कुछ क्षेत्रीय दलों को छोड़ दें तो वो क्षेत्रीय दल कांग्रेस के इस फार्मूले को नहीं समझ पा रहे हैं. अगर बहुत ही बारीकी से देखें तो कांग्रेस अपनी कूटनीति के तहत कोई भी मुद्दा केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ उठाती है, तो किसी क्षेत्रीय दल के कंधे का सहारा लेती है. अगर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस पर लगाए गए महाभियोग से लेकर संसद में लाये अविश्वास प्रस्ताव को देखे तो सब जगह पर कांग्रेस ने अपने को पर्दे के पीछे ही रखा है.अगर महाभियोग की बात करें तो खबर चली थी कि कांग्रेस का कोई भी नेता यह नहीं कह रहा था कि ये प्रस्ताव हम लाये है. कुछ ऐसा ही अविश्वास प्रस्ताव में भी देखने को मिल रहा है. आंध्र प्रदेश के क्षेत्रीय टीडीपी इसे लायी ई जिसका समर्थन कांग्रेस समेत कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों ने किया है. इसमें मामले में थोड़ा न नुकुर करती टीएमसी दिख रही है. उसने शहीद दिवस का हवाला देकर उपस्थिति दर्ज कराने में असमर्थता जाहिर की है.लेकिन बीजेडी, एआइएडीएमके और टीआरएस इससे अपने को अलग रखा है. इस तरह से जो भी दल खुल कर इस अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में सबसे ज्यादा उछलकूद मचा रहे हैं. इन्हें कांग्रेस की कूटनीति समझ में नहीं आ रही है कि उनके सामने बीजेपी जैसे महाशक्तिशाली पहलवान को खडा कर के खुद दूर से कुश्ती देखने की जुगत में है.2019 में ये दल जीते तो कट्टर दुश्मन, जीते तो कट्टर दुश्मन बन जायेंगे. कुल मिलाकर खुन्नास की राजनीति करने वाले दलों के नेता अविवेकी होकर मोदी विरोध कर तो रहे हैं, लेकिन इसके पीछे कांग्रेस की क्या मंशा है, उसे नहीं समझ पा रहे हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल झटके में मुख्यमंत्री तो बन गए हैं लेकिन राजनीति और कूटनीति के बारे में कोई समझ नहीं रखते हैं. उसी तरह से समाजवादी पार्टी टीडीपी भी अपना सब कुछ गंवाने के लिए मोदी विरोध में आ डटे हैं. सपा के राष्ट्रिय अध्यक्ष अखिलेश यादव अगर सोच समझ कर ब्यान देते हैं तो उन्हें एक बार इस बात पर चिंतन कर्नाचाहिये कि यूपी में कांग्रेस को लोकसभा की 2 सीटें चुनाव लड़ने के लिए देने की बात कहने के बाद भी वो कांग्रेस के निशाने पर क्यों नहीं आये. अखिलेश यादव की अनर्गल बयानबाजी से लगता हो कि वो गोरखपुर और इलाहाबाद की जीत के में ही डूबे हुए हैं. टीएमसी की मुखिया ममता बनर्जी कांग्रेस की कूटनीति को बेहतर समझ रही जान पड़ती हैं. पशिम बंगाल पहुँचाने पर जिस तरह से पीएम मोदी का एयरपोर्ट पर जाकर स्वागत करना, उन्हें घाघ नेताओं की श्रेणी में ला खड़ा करता है. उन्हें बेहतर मालूम है कि राजनीति में कोई भी दुश्मन नहीं होता है. बीजेडी एआईएडीएमके और टीआरएस ने आने को पहले ही इस अविश्वास प्रस्ताव से अलग कर लिया है. ये इनकी दूरगामी सोच को दर्शाती है. रही बात बसपा मुखिया की उनके मन में कुछ बड़ा चल रहा है. इसीलिए मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने की घोषणा कर कांग्रेस को संकेत दे दिया है कि साथ लड़ने के लिए बसपा की शर्तें स्वीकार करनी पड़ेंगी. कुल मिलकर कुछ क्षेत्रीय दलों को लोकसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के दो तरफ़ा हमलों को झेलना पडेगा. जहां बीजेपी दोबारा सत्ता पर काबिज होने के लिए उतारेगी वहीं कांग्रेस बिखरे हुए मुस्लिम वोटों को बटोरने के साथ अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उतरेगी. कांग्रेस की छटपटाहट से लगता है कि वो 2019 का लोकसभा चुनाव हर कीमत पर जीतना चाहती है. कोई बड़ी बात नहीं है कि कांग्रेस सभी क्षेत्रीय दलों से पूरी तरह से गठजोड़ न होने की स्थिति में कांग्रेस अपनी स्ट्रैटिजी बदल कर अकेले ही चुनाव लड़ने की घोषणा कर के सभी को चौंका सकती है. अगर ऐसा करती है तो यह बात तय है कि कांग्रेस ने 2019 में सत्ता पर काबिज होने की उम्मीदों को दरकिनार कर दिया है और उसका लक्ष्य 2024 लोकसभा चुनाव हो जाएगा. कुल मिलकर 2019 के लोकसभा चुनाव में कुछ क्षेत्रीय दल केंद्र की सत्ता में अपना दखल रखने से वंचित हो जाए. ये देश के हित में भी होगा. राष्ट्रीय स्तर पर देश का हित सर्वोपरि मानने वाले दो दल ही आपस में टकरायेंगे तो स्वस्थ राजनीति का सूरज उदय होगा. जो देश के लिए एक नया सवेरा लेकर आयेगा.



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