झूठ के रनवे पर फिसले राहुल! सुप्रीम कोर्ट ने बोला, 'चौकीदार प्योर है!'
सुप्रीम कोर्ट ने खोली कांग्रेस के हवाई झूठ की पोल! जिस राफेल के मुद्दे को झूठ के रन-वे पर पिछले कुछ महीनों से राहुल गाँधी भगा रहे थे, उस रन-वे पर फिसलकर उनका झूठ धराशाई हो गया। परंतु क्या देश की जनता इन झूठों की बातों पर अब भी विश्वास करेगी?
अंग्रेज़ी में एक कहावत है, “If you can’t convince them, confuse them”, इसका मतलब जब आप किसी को अपनी बात समझा नहीं सकते तो उसको भ्रमित कर दो। यूएस के पूर्व राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन की कही गयी यह बात कांग्रेस और उस पार्टी को चला रहे परिवार पर अक्षरशः बैठती है।
विडम्बना देखिये, यह वही परिवार है जो खुद विभिन्न महत्वपूर्ण सुरक्षा समझौतों और सौदों में कमीशन खाने का अपराधी है, चाहें वह जीप घोटाला हो जो जवाहर लाल नेहरू के समय हुआ, या कुख्यात बोफोर्स तोप का घोटाला जहाँ राजीव गाँधी का सीधा हाथ था, या फिर ऑगस्टा हेलीकॉप्टर घोटाला, या स्कोर्पियन सबमरीन घोटाला जहाँ वंशवादी ग़ुलामों की राजमाता खुद शामिल थी। काँग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष अपनी माता जी के साथ स्वयं पाँच हज़ार करोड़ के घोटाले में ज़मानत पर बाहर है।
हिंदी हार्ट लैंड कहे जाने वाले तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनावों में जहाँ 'चौकीदार चोर है' जैसा तथ्यविहीन और घृणित नारा हर गली नुक्कड़ पर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं द्वारा फैलाया गया, क्या वह काम किया? कम से कम नतीजे तो यही बात कह रहे हैं कि हाँ, इस नारे ने कुछ तो काम किया है।
जानिए राफेल का मामला: अगर किसी ने ध्यान से देखा हो, तो शुरुआत से ही यह साफ था कि इसमें एक नए पैसे का घोटाला नहीं हुआ है। फ्रांस की सरकार से ले कर डसॉल्ट एविएशन और फिर भारत की वायु सेना और उसके बाद खुद रक्षा मंत्रालय, सब एक स्वर में यह कह रहे थे कि इस सौदे में एक नए पैसे का गबन नहीं हुआ, सब साफ है, लेकिन जिनकी नियत में खोट हो वह भला कैसे मान लें इस बात को? इतने विश्वसनीय लोगों और संस्थाओं के लगातार एक ही बात बोलने के पश्चात भी सिर्फ अपनी राजनैतिक महत्वकांक्षाओं के लिए वंशवादी नेतृत्व का युवराज देश के सवा सौ करोड़ लोगों द्वारा सीधे चुने हुए प्रधानमंत्री को हर रैली में 'चोर' बुलाता रहा। आइए इस पूरे मामले पर एक नज़र डाली जाए और उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर भी प्रकाश डालेंगे।
यहाँ राफेल सौदे को लेकर मुख्यतः तीन बिंदुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है, जिसके ऊपर काँग्रेस के नेता चिल्ला रहे थे। उनको एक के बाद एक यहां देखते हैं।
1. प्रक्रिया को ले कर सवाल: यह कहा जा रहा था कि जब प्रधानमंत्री मोदी मार्च 2015 में फ्रांस के दौरे पर थे तो यह सौदा CCS और रक्षा मंत्रालय से सलाह लिए बिना किया गया था। अब यह कितना हास्यास्पद आरोप था इसका उदाहरण देखें। कांग्रेस पार्टी ने एक तथ्य को छुपा किस प्रकार लोगों को गुमराह करने का प्रयास किया। सच यह है कि उस समय राफेल को खरीदने के लिए सिर्फ दिलचस्पी दिखाई गई थी जिसे "LOI - Letter of Intent" भी कहते हैं, जोकि बस एक बयान मात्र था। अब सोचिये कि सिर्फ एक बयान किस प्रकार से 'फाइनल डील' हो सकता है? यह साफ था कि भारत द्वारा राफेल खरीदने का इरादा दिखाने वाले उस बयान के बाद ही असली बातचीत शुरू हुई, दोनों ही देशों की तरफ से कमिटियां बिठाई गयी। तत्पश्चात इस सौदे को धरातल पर लाने की असली बातचीत शुरू हुई। अंततः 23 सितंबर 2016 को सौदा किया गया। 48 आंतरिक बैठकों और फ्रांसीसी पक्ष के साथ 26 बाहरी बैठकों सहित कुल 74 बैठकें की गईं और फिर अंतिम बातचीत पूरी की गई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह प्रक्रिया से पूरी तरह से संतुष्ट है और यदि किसी भी विचलन में ऐसा होता भी है, तो भी इससे सौदे में कोई गलती नहीं होगी।
2. ऑफसेट पार्टनर (साझेदार) का चुनाव: बहुत जोर शोर से चिल्लाया गया कि सरकार ने जानबूझकर उस सौदे को उस कंपनी के हाथों करवाया जिसको रक्षा उपकरण बनाने में कोई अनुभव ही नहीं है। सर्वोच्च अदालत ने साफ कह दिया है कि 2012 से ही रिलायंस इंडस्ट्री से बातचीत कर रहा था, एवं डिसॉल्ट अपना पार्टनर चुनने के लिए स्वतंत्र था जो रक्षा खरीद प्रक्रिया 2013 के दिशा निर्देशों के अंतर्गत अनुकूल हो। भारत सरकार का इसमें कहीं से कोई हस्तक्षेप नहीं था।
3. लड़ाकू विमान का मूल्य: सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को कारणवश शुरुआती अनिच्छा के बाद शुरुआती स्थिति वाले विमानों की कीमत उपलब्ध करवाई, और यह एक अच्छा कदम भी साबित हुआ। अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सरकार ने संसद में केवल शुरुआती स्थिति के विमानों की कीमत का खुलासा किया था एवं अनुकूलन लागत का खुलासा नहीं किया गया था। यह भी कहा गया कि CAG द्वारा पूरी लागत की समीक्षा की जा रही है। कोर्ट में वायु सेना ने भी अपनी अनिच्छा को साझा करते हुए कहा है कि पूरे सौदे की लागत को सार्वजनिक किया जाना सही नही है। फ्रांस तथा भारत सरकार के समझौते के अनुच्छेद 10 के अनुसार इसका दाम साझा न करने के लिए UPA सरकार के वक़्त भारत और फ्रांस के बीच हस्ताक्षर भी किए गए थे।
इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि HAL द्वारा एक राफेल को बनाने में लगने वाले श्रम-घंटे डसॉल्ट के मानकों से 2.7 गुणा अधिक हैं, जोकि डसॉल्ट व भारत के लिए घाटे का सौदा साबित होता। इसके साथ ही सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को यह भी बताया कि राफेल को एयरक्राफ्ट की पूरी जिम्मेदारी लेनी थी और जो राफेल ने स्वयं HAL के साथ लेने से मना कर दिया था। दूसरी तरफ यह देरी हमारे दुश्मन देशों के लिये वरदान साबित हो रही थी। वह अपनी टेक्नोलॉजी को बेहतर बना रहे थे और अपने हवाई बेड़े में आधुनिक लड़ाकू विमान इकठ्ठा कर रहे थे। सरकार ने यह भी बताया कि पिछली सरकार (UPA) के शासनकाल में हो रही देरी से भारत को रक्षा क्षेत्र में बहुत नुकसान हुआ है, इसके साथ ही जो आरोप राहुल गांधी लगा रहे थे कि 126 विमानों को UPA सरकार खरीद रही थी उसको कम कर के मोदी जी ने 36 विमान कर दिए, यह भी कोरा झूठ है। दरअसल बात ये थी कि 126 विमानों की डील कभी फाइनल हुई ही नहीं थी, तो किस प्रकार से कांग्रेस 126 विमान खरीद रही थी?
सुप्रीम कोर्ट ने तीखी टिप्पणी करते हुए यह भी कहा कि कुछ मीडिया हाउसेस और पूर्व फ्रांसीसी राष्ट्रपति के एक बयान के ऊपर इस सौदे के मामले में जांच बिठाने वाला निर्णय नहीं दिया जा सकता है।
सीधे शब्दों में कहें तो कांग्रेस और उनके वंशवादी युवराज राहुल गाँधी को शुरुआत से इस झूठ के बारे में पता था, परंतु उन्होंने देश की रक्षा को खतरे में डालते हुए देश की जनता को गुमराह करने का रास्ता चुनना ही बेहतर समझा, जो लोकतंत्र में एक पाप से कम नहीं।
अब, यहाँ एक सबसे महत्वपूर्ण बात जो हर भारतीय को समझने की आवश्यकता है। कोर्ट के अंदर विनीत ढांढा, जिन्होंने राफेल में जाँच करवाने के लिए PIL डाली थी, उन्होंने कोर्ट में यह माना कि इसके पीछे उनका कारण बस न्यूज़ पेपर में पढ़ा एक आर्टिकल था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने उनको जमकर फटकार लगाई, यानी विनीत भी एक प्रकार से प्रशांत भूषण की तरह ही PIL डालने को अपना व्यवसाय बना चुके हैं।
2004 के चुनावों से पहले भी कांग्रेस ने ऐसे ही एक झूठे ताबूत घोटाले की हवा उड़ाई थी जहां बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह साफ बताया गया कि उसमें घोटाला हुआ ही नहीं था, परंतु तब तक, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार हार चुकी थी और कांग्रेस को जो चाहिए था, वो मिल गया था। ठीक ऐसा ही हुआ जब कर्नाटक चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस ने भाजपा नेता येदयुरप्पा के ऊपर घोटाला करने का झूठा आरोप लगाना शुरू किया था। अब स्वयं न्यायालय ने येदयुरप्पा को निर्दोष माना है, परंतु इसका खामियाज़ा उनको कर्नाटक चुनाव हार कर चुकाना पड़ा।
अब यही फॉर्मूला कांग्रेस प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ भी इस्तेमाल कर रही है, ताकि एक झूठा प्रोपेगंडा बना लोगों के मन में सन्देह का एक बीज बोया जा सके कि इस सौदे में कोई घोटाला हुआ है। परंतु उनके उस संदेह के बीज से उत्पन्न हो रहे वृक्ष को आज सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने जड़ से काट दिया। अब यहाँ सवाल यह है कि आखिर हम भारतीय कब समझेंगे? क्या हम उस एक पार्टी पर विश्वास कर सकते हैं जिसने झूठे घोटालों के आरोप लगा कर स्वयं को किनारे किया हो और जब उसका कार्यकाल आया तो उसने जमकर घोटाले किये हो?
अरे जो व्यक्ति 'भेड़िया आया - भेड़िया आया' कि तरह 'घोटाला हुआ-घोटाला हुआ' चिल्ला रहा है, वो खुद पाँच हज़ार करोड़ रुपयों के घोटाले पर ज़मानत लिए घूम रहा है, और आप उसकी बातों में आ रहे हैं?
उसने एकबार भी नहीं सोचा कि एक बेदाग के दामन पर दाग लगाने के चक्कर में देश की कितनी बदनामी हो रही है? भारत की सुरक्षा व्यवस्था व सेना के साथ कितना बड़ा खिलवाड़ होगा? यदि यह सौदा रद्द हो जाता तो सेना को होने वाली अपूरणीय क्षति का जिम्मेदार कौन होगा?
लोकतंत्र में संवाद ही एकमात्र रास्ता होता है, वहाँ भी यह संसद को ठप्प करा प्रदर्शन करने वॉक आउट पर निकल जाते हैं, तो संवाद हो कैसे? वंशवादी ग़ुलामों से हम एक मज़बूत और सकारात्मक विपक्ष की उम्मीद करें तो कैसे करें? एक अपरिपक्व युवराज को देश के सर्वोच्च पद पर बैठाने के लिए एक बेदाग व्यक्ति की छवि पर जो गहरा दाग लगाने का प्रयास हुआ, उसको कैसे क्षमा करें?
देश की जनता को अब सच में यह सोचना पड़ेगा कि झूठ के बाज़ार में बैठे इन खानदानी साहूकारों के झूठ को बिकने से कैसे रोके, क्योंकि यही इनका काम है, यही इनकी आजीविका का मुख्य स्रोत है।
अभी राहुल गांधी को सारे जवाब मिल चुके हैं, अब भारत की जनता राहुल गाँधी से कुछ सवालों के जवाब चाहती है। राहुल गांधी को मैदान में आकर जनता के इन सवालों के जवाब देने ही होंगें।
सवाल 1: राहुल गाँधी की सूचनाओं का स्त्रोत क्या है?
सवाल 2: राहुल गाँधी ने किसको बचाने के लिए यह झूठे आरोप लगाए?
सवाल 3: 2007 से 2014 के सात साल के लंबे अंतराल के समय भी यह महत्वपूर्ण डील क्यों पूरी नहीं हुई?
सवाल 4: राफेल सौदे में किसकी कमीशन तय नहीं हो पा रही थी?
सवाल 5: कांग्रेस ने इस महत्वपूर्ण डील को लटका कर सेना और देश की सुरक्षा से समझौता क्यों किया?
सवाल 6: अपने राज में कांग्रेस ने इसको दो सरकारों के बीच का सौदा क्यों नहीं बनाया?
सवाल 7: कांग्रेस के अध्यक्ष और अन्य नेता देश की सुरक्षा व्यवस्था और सेना के साथ खिलवाड़ तथा देश के प्रधानमंत्री के चरित्र हनन के लिए माफी मांगेंगे या नहीं?

अंग्रेज़ी में एक कहावत है, “If you can’t convince them, confuse them”, इसका मतलब जब आप किसी को अपनी बात समझा नहीं सकते तो उसको भ्रमित कर दो। यूएस के पूर्व राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन की कही गयी यह बात कांग्रेस और उस पार्टी को चला रहे परिवार पर अक्षरशः बैठती है।
विडम्बना देखिये, यह वही परिवार है जो खुद विभिन्न महत्वपूर्ण सुरक्षा समझौतों और सौदों में कमीशन खाने का अपराधी है, चाहें वह जीप घोटाला हो जो जवाहर लाल नेहरू के समय हुआ, या कुख्यात बोफोर्स तोप का घोटाला जहाँ राजीव गाँधी का सीधा हाथ था, या फिर ऑगस्टा हेलीकॉप्टर घोटाला, या स्कोर्पियन सबमरीन घोटाला जहाँ वंशवादी ग़ुलामों की राजमाता खुद शामिल थी। काँग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष अपनी माता जी के साथ स्वयं पाँच हज़ार करोड़ के घोटाले में ज़मानत पर बाहर है।
हिंदी हार्ट लैंड कहे जाने वाले तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनावों में जहाँ 'चौकीदार चोर है' जैसा तथ्यविहीन और घृणित नारा हर गली नुक्कड़ पर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं द्वारा फैलाया गया, क्या वह काम किया? कम से कम नतीजे तो यही बात कह रहे हैं कि हाँ, इस नारे ने कुछ तो काम किया है।
जानिए राफेल का मामला: अगर किसी ने ध्यान से देखा हो, तो शुरुआत से ही यह साफ था कि इसमें एक नए पैसे का घोटाला नहीं हुआ है। फ्रांस की सरकार से ले कर डसॉल्ट एविएशन और फिर भारत की वायु सेना और उसके बाद खुद रक्षा मंत्रालय, सब एक स्वर में यह कह रहे थे कि इस सौदे में एक नए पैसे का गबन नहीं हुआ, सब साफ है, लेकिन जिनकी नियत में खोट हो वह भला कैसे मान लें इस बात को? इतने विश्वसनीय लोगों और संस्थाओं के लगातार एक ही बात बोलने के पश्चात भी सिर्फ अपनी राजनैतिक महत्वकांक्षाओं के लिए वंशवादी नेतृत्व का युवराज देश के सवा सौ करोड़ लोगों द्वारा सीधे चुने हुए प्रधानमंत्री को हर रैली में 'चोर' बुलाता रहा। आइए इस पूरे मामले पर एक नज़र डाली जाए और उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर भी प्रकाश डालेंगे।
यहाँ राफेल सौदे को लेकर मुख्यतः तीन बिंदुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है, जिसके ऊपर काँग्रेस के नेता चिल्ला रहे थे। उनको एक के बाद एक यहां देखते हैं।
1. प्रक्रिया को ले कर सवाल: यह कहा जा रहा था कि जब प्रधानमंत्री मोदी मार्च 2015 में फ्रांस के दौरे पर थे तो यह सौदा CCS और रक्षा मंत्रालय से सलाह लिए बिना किया गया था। अब यह कितना हास्यास्पद आरोप था इसका उदाहरण देखें। कांग्रेस पार्टी ने एक तथ्य को छुपा किस प्रकार लोगों को गुमराह करने का प्रयास किया। सच यह है कि उस समय राफेल को खरीदने के लिए सिर्फ दिलचस्पी दिखाई गई थी जिसे "LOI - Letter of Intent" भी कहते हैं, जोकि बस एक बयान मात्र था। अब सोचिये कि सिर्फ एक बयान किस प्रकार से 'फाइनल डील' हो सकता है? यह साफ था कि भारत द्वारा राफेल खरीदने का इरादा दिखाने वाले उस बयान के बाद ही असली बातचीत शुरू हुई, दोनों ही देशों की तरफ से कमिटियां बिठाई गयी। तत्पश्चात इस सौदे को धरातल पर लाने की असली बातचीत शुरू हुई। अंततः 23 सितंबर 2016 को सौदा किया गया। 48 आंतरिक बैठकों और फ्रांसीसी पक्ष के साथ 26 बाहरी बैठकों सहित कुल 74 बैठकें की गईं और फिर अंतिम बातचीत पूरी की गई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह प्रक्रिया से पूरी तरह से संतुष्ट है और यदि किसी भी विचलन में ऐसा होता भी है, तो भी इससे सौदे में कोई गलती नहीं होगी।
2. ऑफसेट पार्टनर (साझेदार) का चुनाव: बहुत जोर शोर से चिल्लाया गया कि सरकार ने जानबूझकर उस सौदे को उस कंपनी के हाथों करवाया जिसको रक्षा उपकरण बनाने में कोई अनुभव ही नहीं है। सर्वोच्च अदालत ने साफ कह दिया है कि 2012 से ही रिलायंस इंडस्ट्री से बातचीत कर रहा था, एवं डिसॉल्ट अपना पार्टनर चुनने के लिए स्वतंत्र था जो रक्षा खरीद प्रक्रिया 2013 के दिशा निर्देशों के अंतर्गत अनुकूल हो। भारत सरकार का इसमें कहीं से कोई हस्तक्षेप नहीं था।
3. लड़ाकू विमान का मूल्य: सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को कारणवश शुरुआती अनिच्छा के बाद शुरुआती स्थिति वाले विमानों की कीमत उपलब्ध करवाई, और यह एक अच्छा कदम भी साबित हुआ। अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सरकार ने संसद में केवल शुरुआती स्थिति के विमानों की कीमत का खुलासा किया था एवं अनुकूलन लागत का खुलासा नहीं किया गया था। यह भी कहा गया कि CAG द्वारा पूरी लागत की समीक्षा की जा रही है। कोर्ट में वायु सेना ने भी अपनी अनिच्छा को साझा करते हुए कहा है कि पूरे सौदे की लागत को सार्वजनिक किया जाना सही नही है। फ्रांस तथा भारत सरकार के समझौते के अनुच्छेद 10 के अनुसार इसका दाम साझा न करने के लिए UPA सरकार के वक़्त भारत और फ्रांस के बीच हस्ताक्षर भी किए गए थे।
इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि HAL द्वारा एक राफेल को बनाने में लगने वाले श्रम-घंटे डसॉल्ट के मानकों से 2.7 गुणा अधिक हैं, जोकि डसॉल्ट व भारत के लिए घाटे का सौदा साबित होता। इसके साथ ही सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को यह भी बताया कि राफेल को एयरक्राफ्ट की पूरी जिम्मेदारी लेनी थी और जो राफेल ने स्वयं HAL के साथ लेने से मना कर दिया था। दूसरी तरफ यह देरी हमारे दुश्मन देशों के लिये वरदान साबित हो रही थी। वह अपनी टेक्नोलॉजी को बेहतर बना रहे थे और अपने हवाई बेड़े में आधुनिक लड़ाकू विमान इकठ्ठा कर रहे थे। सरकार ने यह भी बताया कि पिछली सरकार (UPA) के शासनकाल में हो रही देरी से भारत को रक्षा क्षेत्र में बहुत नुकसान हुआ है, इसके साथ ही जो आरोप राहुल गांधी लगा रहे थे कि 126 विमानों को UPA सरकार खरीद रही थी उसको कम कर के मोदी जी ने 36 विमान कर दिए, यह भी कोरा झूठ है। दरअसल बात ये थी कि 126 विमानों की डील कभी फाइनल हुई ही नहीं थी, तो किस प्रकार से कांग्रेस 126 विमान खरीद रही थी?
सुप्रीम कोर्ट ने तीखी टिप्पणी करते हुए यह भी कहा कि कुछ मीडिया हाउसेस और पूर्व फ्रांसीसी राष्ट्रपति के एक बयान के ऊपर इस सौदे के मामले में जांच बिठाने वाला निर्णय नहीं दिया जा सकता है।
सीधे शब्दों में कहें तो कांग्रेस और उनके वंशवादी युवराज राहुल गाँधी को शुरुआत से इस झूठ के बारे में पता था, परंतु उन्होंने देश की रक्षा को खतरे में डालते हुए देश की जनता को गुमराह करने का रास्ता चुनना ही बेहतर समझा, जो लोकतंत्र में एक पाप से कम नहीं।
अब, यहाँ एक सबसे महत्वपूर्ण बात जो हर भारतीय को समझने की आवश्यकता है। कोर्ट के अंदर विनीत ढांढा, जिन्होंने राफेल में जाँच करवाने के लिए PIL डाली थी, उन्होंने कोर्ट में यह माना कि इसके पीछे उनका कारण बस न्यूज़ पेपर में पढ़ा एक आर्टिकल था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने उनको जमकर फटकार लगाई, यानी विनीत भी एक प्रकार से प्रशांत भूषण की तरह ही PIL डालने को अपना व्यवसाय बना चुके हैं।
2004 के चुनावों से पहले भी कांग्रेस ने ऐसे ही एक झूठे ताबूत घोटाले की हवा उड़ाई थी जहां बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह साफ बताया गया कि उसमें घोटाला हुआ ही नहीं था, परंतु तब तक, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार हार चुकी थी और कांग्रेस को जो चाहिए था, वो मिल गया था। ठीक ऐसा ही हुआ जब कर्नाटक चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस ने भाजपा नेता येदयुरप्पा के ऊपर घोटाला करने का झूठा आरोप लगाना शुरू किया था। अब स्वयं न्यायालय ने येदयुरप्पा को निर्दोष माना है, परंतु इसका खामियाज़ा उनको कर्नाटक चुनाव हार कर चुकाना पड़ा।
अब यही फॉर्मूला कांग्रेस प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ भी इस्तेमाल कर रही है, ताकि एक झूठा प्रोपेगंडा बना लोगों के मन में सन्देह का एक बीज बोया जा सके कि इस सौदे में कोई घोटाला हुआ है। परंतु उनके उस संदेह के बीज से उत्पन्न हो रहे वृक्ष को आज सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने जड़ से काट दिया। अब यहाँ सवाल यह है कि आखिर हम भारतीय कब समझेंगे? क्या हम उस एक पार्टी पर विश्वास कर सकते हैं जिसने झूठे घोटालों के आरोप लगा कर स्वयं को किनारे किया हो और जब उसका कार्यकाल आया तो उसने जमकर घोटाले किये हो?
अरे जो व्यक्ति 'भेड़िया आया - भेड़िया आया' कि तरह 'घोटाला हुआ-घोटाला हुआ' चिल्ला रहा है, वो खुद पाँच हज़ार करोड़ रुपयों के घोटाले पर ज़मानत लिए घूम रहा है, और आप उसकी बातों में आ रहे हैं?
उसने एकबार भी नहीं सोचा कि एक बेदाग के दामन पर दाग लगाने के चक्कर में देश की कितनी बदनामी हो रही है? भारत की सुरक्षा व्यवस्था व सेना के साथ कितना बड़ा खिलवाड़ होगा? यदि यह सौदा रद्द हो जाता तो सेना को होने वाली अपूरणीय क्षति का जिम्मेदार कौन होगा?
लोकतंत्र में संवाद ही एकमात्र रास्ता होता है, वहाँ भी यह संसद को ठप्प करा प्रदर्शन करने वॉक आउट पर निकल जाते हैं, तो संवाद हो कैसे? वंशवादी ग़ुलामों से हम एक मज़बूत और सकारात्मक विपक्ष की उम्मीद करें तो कैसे करें? एक अपरिपक्व युवराज को देश के सर्वोच्च पद पर बैठाने के लिए एक बेदाग व्यक्ति की छवि पर जो गहरा दाग लगाने का प्रयास हुआ, उसको कैसे क्षमा करें?
देश की जनता को अब सच में यह सोचना पड़ेगा कि झूठ के बाज़ार में बैठे इन खानदानी साहूकारों के झूठ को बिकने से कैसे रोके, क्योंकि यही इनका काम है, यही इनकी आजीविका का मुख्य स्रोत है।
अभी राहुल गांधी को सारे जवाब मिल चुके हैं, अब भारत की जनता राहुल गाँधी से कुछ सवालों के जवाब चाहती है। राहुल गांधी को मैदान में आकर जनता के इन सवालों के जवाब देने ही होंगें।
सवाल 1: राहुल गाँधी की सूचनाओं का स्त्रोत क्या है?
सवाल 2: राहुल गाँधी ने किसको बचाने के लिए यह झूठे आरोप लगाए?
सवाल 3: 2007 से 2014 के सात साल के लंबे अंतराल के समय भी यह महत्वपूर्ण डील क्यों पूरी नहीं हुई?
सवाल 4: राफेल सौदे में किसकी कमीशन तय नहीं हो पा रही थी?
सवाल 5: कांग्रेस ने इस महत्वपूर्ण डील को लटका कर सेना और देश की सुरक्षा से समझौता क्यों किया?
सवाल 6: अपने राज में कांग्रेस ने इसको दो सरकारों के बीच का सौदा क्यों नहीं बनाया?
सवाल 7: कांग्रेस के अध्यक्ष और अन्य नेता देश की सुरक्षा व्यवस्था और सेना के साथ खिलवाड़ तथा देश के प्रधानमंत्री के चरित्र हनन के लिए माफी मांगेंगे या नहीं?



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